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जीव-अजीव अधिकार
एमेव य ववहारो अज्झवसाणादिअण्णभावाणं। जीवो त्ति कदो सुत्ते तत्थेक्को णिच्छिदो जीवो।। ४८ ।।
एवमेव च व्यवहारोऽध्यवसानाद्यन्यभावानाम्। जीव इति कृतः सूत्रे तत्रैको निश्चितो जीवः।। ४८ ।।
यथैष राजा पंच योजनान्यभिव्याप्य निष्क्रामतीत्येकस्य पंच योजनान्यभिव्याप्तुमशक्यत्वाव्यवहारिणां बलसमुदाये राजेति व्यवहारः, परमार्थतस्त्वेक एव राजा; तथैष जीव: समग्रं रागग्राममभिव्याप्य प्रवर्तत इत्येकस्य समग्रं रागग्राममभिव्याप्तुमशक्यत्वाव्यवहारिणामध्यवसानादिष्वन्यभावेषु जीव इति व्यवहारः, परमार्थतस्त्वेक एव जीवः।।
त्यों सर्व अध्यवसान आदिक, अन्यभावजु जीव है।
-शास्त्रन किया व्यवहार, पर वहाँ जीव निश्चय एक है।। ४८।। [ एक: निर्गतः राजा] राजा तो एक ही निकला है; [ एवम् एव च] इसीप्रकार [ अध्यवसानाद्यन्यभावानाम् ] अध्यवसानादि अन्य भावोंको [ जीवः इति ] ( यह) जीव है' इसप्रकार [ सूत्रे] परमागममें कहा है सो [ व्यवहारः कृतः ] व्यवहार किया है, [ तत्र निश्चितः ] यदि निश्चयसे विचार किया जाये तो उसमें [जीवः एकः ] जीव तो एक ही है।
टीका:-जैसे यह कहना कि राजा पाँच योजनके विस्तार में निकल रहा है सो यह व्यवहारी जनों का सेना समुदाय में राजा कह देने का व्यवहार है क्योंकि एक राजाका पाँच योजनमें फैलना अशक्य है; परमार्थसे तो राजा एक ही है, ( सेना राजा नहीं है); उसीप्रकार यह जीव समग्र रागग्राममें (-रागके स्थानोंमें ) व्याप्त होकर प्रवृत्त हो रहा है ऐसा कहना वह, व्यवहारीजनों का अध्यवसानादिक भावोंमें जीव कहने का व्यवहार है, क्योंकि एक जीवका समग्र रागग्राममें व्याप्त होना अशक्य है; परमार्थसे तो जीव एक ही है, (अध्यवसानादिक भाव जीव नहीं हैं)।
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