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समयसार
४६८
जीव एव मिथ्यात्वादिभावकर्मणः कर्ता, तस्याचेतनप्रकृतिकार्यत्वेऽचेतनत्वानुषङ्गात्। स्वस्यैव जीवो मिथ्यात्वादिभावकर्मण: कर्ता, जीवेन पुद्गलद्रव्यस्य मिथ्यात्वादिभावकर्मणि क्रियमाणे पुद्गलद्रव्यस्य चेतनानुषङ्गात्। न च जीवः प्रकृतिश्च मिथ्यात्वादिभावकर्मणो द्वौ कर्तारौ, जीववदचेतनायाः प्रकृतेरपि तत्फलभोगानुषङ्गात्। न च जीवः प्रकृतिश्च मिथ्यात्वादिभावकर्मणो द्वावप्यकर्तारौ, स्वभावत एव पुद्गलद्रव्यस्य मिथ्यात्वादिभावानुषङ्गात्। ततो जीवः कर्ता, स्वस्य कर्म कार्यमिति सिद्धम्।
टीका:-जीव ही मिथ्यात्वादि भावकर्मका कर्ता है; क्योंकि यदि वह (भावकर्म) अचेतन प्रकृतिका कार्य हो तो उसे ( –भावकर्मकी) अचेतनत्वका प्रसंग आ जायेगा। जीव अपने ही मिथ्यात्वादि भावकर्मका कर्ता है; क्योंकि यदि जीव पुद्गलद्रव्यके मिथ्यात्वादि भावकर्मको करे तो पुद्गलद्रव्यको चेतनत्वका प्रसंग आ जायेगा। और जीव तथा प्रकृति दोनों मिथ्यात्वादि भावकर्मके कर्ता ऐसा भी नहीं है; क्योंकि यदि वे दोनों कर्ता हों तो जीवकी भाँति अचेतन प्रकृतिको भी उस (-भावकर्म) का फल भोगनेका प्रसंग आ जायेगा। और जीव तथा प्रकृति दोनों मिथ्यात्वादि भावकर्मके अकर्ता हों सो ऐसा भी नहीं है; क्योंकि यदि वे दोनों अकर्ता हों तो स्वभावसे ही पुद्गलद्रव्यको मिथ्यात्वादि भावका प्रसंग आ जायेगा। इससे यह सिद्ध हुआ कि-जीव कर्ता है और अपना कर्म कार्य है (अर्थात् जीव अपने मिथ्यात्वादि भावकर्मका कर्ता है और अपना भावकर्म अपना कार्य है)।
भावार्थ:-इन गाथाओंमें यह सिद्ध किया है कि भावकर्म कर्ता जीव ही है। यहाँ यह जानना चाहिये कि-परमार्थसे अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यके भावका कर्ता नहीं होता इसलिये जो चेतनके भाव है उनका कर्ता चेतन ही हो सकता है। इस जीवके अज्ञानसे जो मिथ्यात्वादि भावरूप जो परिणाम हैं वे चेतन हैं, जड़ नहीं; अशुद्धनिश्चयनयसे उन्हें चिदाभास भी कहा जाता है। इसप्रकार वे परिणाम चेतन हैं, इसलिये उनका कर्ता भी चेतन ही है, क्योंकि चेतन कर्म का कर्ता चेतन ही होता है-यह परमार्थ है। अभेददृष्टि में तो जीव शुद्धचेतनामात्र ही है, किन्तु जब वह कर्म
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निमित्त से परिणमित होता है तब वह उन उन परिणामोंसे युक्त होता है और तब परिणाम-परिणामीकी भेददृष्टिमें अपने अज्ञानभावरूप परिणामोंका कर्ता जीव ही है। अभेददृष्टिमें तो कर्ताकर्मभाव ही नहीं है, शुद्धचेतनामात्र जीववस्तु है। इसप्रकार यथार्थतया समझना चाहिये कि चेतनकर्मका कर्ता चेतन ही है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :---
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