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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
( शार्दूलविक्रीडित )
कार्यत्वादकृतं न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्योर्द्वयोरज्ञायाः प्रकृतेः स्वकार्यफलभुग्भावानुषङ्गात्कृतिः । नैकस्याः प्रकृतेरचित्त्वलसनाज्जीवोऽस्य कर्ता ततो जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गलः ।। २०३ ।। ( शार्दूलविक्रीडित )
कर्मैव प्रवितर्क्य कर्तृ हतकैः क्षिप्त्वात्मनः कर्तृतां कर्तात्मैष कथञ्चिदित्यचलिता कैश्चिच्छ्रुतिः कोपिता । तेषामुद्धतमोहमुद्रितधियां बोधस्य संशुद्धये स्याद्वादप्रतिबन्धलब्धविजया वस्तुस्थितिः स्तूयते ।। २०४ ।।
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श्लोकार्थ:- [कर्म कार्यत्वात् अकृतं न ] जो कर्म ( अर्थात् भावकर्म ) है वह कार्य है, इसलिये वह अकृत नहीं हो सकता अर्थात् किसी के द्वारा किये बिना नहीं हो सकता। [च] और [ तत् जीव-प्रकृत्योः द्वयोः कृतिः न ] ऐसा भी नहीं है कि वह (भावकर्म) जीव और प्रकृति दोनों की कृति हो, [ अज्ञायाः प्रकृतेः स्व-कार्य-फलभुग्-अनुषङ्गात् ] क्योंकि यदि वह दोनोंका कार्य हो तो ज्ञानरहित (जड़) प्रकृतिको भी अपने कार्यका फल भोगनेका प्रसंग आ जायेगा । [ एकस्याः प्रकृतेः न ] और वह ( भावकर्म) एक प्रकृतिकी कृति ( - अकेली प्रकृतिका कार्य — ) भी नहीं है, [ अचित्त्वलसनात् ] क्योंकि प्रकृतिका तो अचेतनत्व प्रगट है ( अर्थात् प्रकृति तो अचेतन हे और भावकर्म चेतन है ) । [ ततः ] इसलिये [ अस्य कर्ता जीवः ] उस भावकर्मका कर्ता जीव ही है [च] और [ चिद् - अनुगं ] चेतनका अनुसरण करनेवाला अर्थात् चेतनके साथ अन्वयरूप ( - चेतनके परिणामरूप - ) ऐसा [ तत्] वह भावकर्म [ जीवस्य एव कर्म ] जीवका ही कर्म है, [ यत् ] क्योंकि [ पुद्गलः ज्ञाता न ] पुद्गल तो ज्ञाता नहीं है (इसलिये वह भावकर्म पुद्गलका कर्म नहीं हो सकता ) ।
भावार्थ:-चेतनकर्म चेतनके ही होता है; पुद्गल जड़ है, इसलिये उसके चेतनकर्म कैसे हो सकता है । २०३ ।
अब आगे की गाथाओंमें, जो भावकर्मका कर्ता भी कर्मको ही मानते हैं उन्हें समझानेके लिये स्याद्वाद अनुसार वस्तुस्थिति कहेंगे, पहले उसका सुचक काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ :- [ कैश्चित् हतकैः ] कोई आत्माके घातक ( सर्वथा एकांतवादी ) [कर्म एव कर्तृ प्रवितर्क्य ] कर्मको ही कर्ता विचार कर [ आत्मनः कर्तृतां क्षिप्त्वा ] आत्माके कर्तृत्वको उड़ाकर, ' [ एषः आत्मा कथञ्चित् कर्ता ] यह आत्मा कथंचित् कर्ता है ' [ इति अचलिता श्रुतिः कोपिता ] ऐसा कहने वाली अचलित श्रुतिको कोपित करते हैं (-निर्बाध जिनवाणीकी विराधना करते हैं );
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