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समयसार
३७८
य आत्मना तु मन्यते दुःखितसुखितान् करोमि सत्त्वानिति। स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः।। २५३ ।।
परजीवानहं दुःखितान् सुखितांश्च करोमि, परजीवैर्दुःखितः सुखितश्च क्रियेऽहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम्। स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्यादृष्टि:, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात् सम्यग्दृष्टिः।।
कथमयमध्यवसायोऽज्ञानमिति चेत्कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सव्वे। कम्मं च ण देसि तुमं दुक्खिदसुहिदा कह कया ते।। २५४ ।। कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सव्वे। कम्मं च ण दिति तुहं कदोसि कहं दुक्खिदो तेहिं।। २५५ ।।
गाथार्थ:- [ यः] जो [इति मन्यते ] यह मानता है कि [आत्मना तु] अपने द्वारा [ सत्त्वान् ] मैं (पर) जीवोंको [ दुःखितसुखितान् ] दुःखी-सुखी [ करोमि ] करता हूँ, [ सः] वह [ मूढः] मूढ (-मोही) है, [अज्ञानी] अज्ञानी है, [ तु] और [ अत: विपरीतः ] जो इससे विपरीत है वह [ ज्ञानी ] ज्ञानी है।
टीका:- परजीवोंको मैं दुःखी तथा सुखी करता हूँ और परजीव मुझे दुःखी तथा सुखी करते हैं' इसप्रकारका अध्यवसाय ध्रुवरूपसे अज्ञान है। वह अध्यवसाय जिसके है वह जीव अज्ञानीपनेके कारण मिथ्यादृष्टि है; और जिसके वह अध्यवसाय नहीं है वह जीव ज्ञानीपनेके कारण सम्यग्दृष्टि है।
भावार्थ:- यह मानना अज्ञान है कि मैं पर जीवोंको दुःखी या सुखी करता हूँ और परजीव मुझे दुःखी या सुखी करते हैं'। जिसे यह अज्ञान है वह मिथ्यादृष्टि है; और जिसके यह अज्ञान नहीं है वह ज्ञानी है-सम्यग्दृष्टि है।
अब यह प्रश्न होता है कि अध्यवसाय अज्ञान कैसे है ? उसका उत्तर कहते
जहँ उदयकर्म जु जीव सब ही दुःखित अवरु सुखी बने । तू कर्म तो देता नहीं, कैसे तू दुखित सुखी करे ? ।। २५४ ।। जहँ उदयकर्म जु जीव सब ही दुःखित अवरु सुखी बने । वो कर्म तो देता नहीं, तो दुखित तुझ कैसे करे ? ।। २५५ ।।
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