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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates निर्जरा अधिकार उवभोगमिंदियेहिं दव्वाणमचेदणाणमिदराणं। जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ।। १९३ ।। उपभोगमिन्द्रियैः द्रव्याणामचेतनानामितरेषाम् । यत्करोति सम्यग्दृष्टि: तत्सर्व निर्जरानिमित्तम् ।। १९३ ।। ३०१ विरागस्योपभोगो निर्जरायै एव । रागादिभावानां सद्भावेन मिथ्यादृष्टेरचेतनान्यद्रव्योपभोगो बन्धनिमित्तमेव स्यात्। स एव रागादिभावानामभावेन सम्यग्दृष्टेर्निर्जरानिमित्तमेव स्यात् । एतेन द्रव्यनिर्जरास्वरूपमावेदितम्। भावार्थ:-संवर होने के बाद नवीन कर्म तो नहीं बँधते । और जो कर्म पहले बँधे हुए थे उनकी जब निर्जरा होती है तब ज्ञानका आवरण दूर होनेसे वह (ज्ञान) ऐसा हो जाता है कि पुनः रागादिरूप परिणमित नहीं होता - सदा प्रकाशरूप ही रहता है। १३३ । अब द्रव्यनिर्जराका स्वरूप कहते हैं: चेतन अचेतन द्रव्यका, उपभोग इंद्रिसमूहसे । जो जो करे सुदृष्टि वह सब, निर्जराकारण बने ।। १९३।। गाथार्थ:- [ सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि जीव [ यत् ] जो [इन्द्रियैः] इंद्रियोंके द्वारा [अचेतनानाम् ] अचेतन तथा [ इतरेषाम् ] चेतन [ द्रव्याणाम्] द्रव्योंका [ उपभोगम् ] उपभोग [ करोति ] करता है [ तत् सर्व ] वह सर्व [ निर्जरानिमित्तम् ] निर्जराका निमित्त है । टीका:-विरागीका उपभोग निर्जराके लिये ही है ( वह निर्जराका कारण होता है)। रागादिभावोंके सद्भावसे मिथ्यादृष्टिके अचेतन तथा चेतन द्रव्योंका उपभोग बंधका निमित्त होता है; वही ( उपभोग ), रागादिभावोंके अभावसे सम्यग्दृष्टिके लिये निर्जराका निमित्त होता है; इसप्रकार द्रव्यनिर्जराका स्वरूप कहा । भावार्थ:-सम्यग्दृष्टिको ज्ञानी कहा है और ज्ञानीके रागद्वेषमोहका अभाव ह है; इसलिये सम्यग्दृष्टि विरागी है। यद्यपि उसके इंद्रियोंके द्वारा भोग दिखाई देता है तथापि उसे भोग की सामग्रीके प्रति राग नहीं है। वह जानता है कि “ यह ( भोगोंकी सामग्री) परद्रव्य है, मेरा और इसका कोई सम्बन्ध नहीं है; कर्मोदयके निमित्तसे इसका और मेरा संयोग-वियोग है "। जबतक उसे चारित्रमोहका उदय आकर पीड़ा करता है और स्वयं बलहीन होनेसे पीड़ाको सहन नहीं कर सकता तब तक - जैसे रोगी रोगकी पीड़ाको सहन नहीं कर सकता तब उसका औषधि इत्यादि के द्वारा Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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