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समयसार
६८
विजित्योपरतसमस्तज्ञेय-ज्ञायकसङ्करदोषत्वेनैकत्वे टोत्कीर्ण विश्वस्याप्यस्योपरि तरता प्रत्यक्षोद्योततया नित्यमेवान्तःप्रकाशमानेनानपायिना स्वतःसिद्धेन परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन सर्वेभ्यो द्रव्यान्तरेभ्यः परमार्थतोऽतिरिक्तमात्मानं सञ्चेतयते स खलु जितेन्द्रियो जिन इत्येका निश्चयस्तुतिः। अथ भाव्यभावकसङ्करदोषपरिहारेण
जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आद। तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया बेंति।। ३२ ।।
यो मोहं तु जित्वा ज्ञानस्वभावाधिकं जानात्यात्मानम्। तं जितमोहं साधुं परमार्थविज्ञायका ब्रुवन्ति।। ३२ ।।
सो यह इंद्रियोंके विषयभूत पदार्थों का जीतना हुआ। इसप्रकार जो (मुनि) द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों तथा इंद्रियों के विषयभूत पदार्थोंको (तीनोंको) जीतकर, ज्ञेयज्ञायक-संकर नामक दोष आता था सो सब दूर होनेसे एकत्वमें टंकोत्कीर्ण और ज्ञानस्वभावके द्वारा सर्व अन्यद्रव्योंसे परमार्थसे भिन्न ऐसे अपने आत्माका अनुभव करते हैं वे निश्चयसे जितेन्द्रिय जिन हैं। (ज्ञानस्वभाव अन्य अचेतन द्रव्योंमें नहीं है इसलिये उनके द्वारा आत्मा सबसे अधिक, भिन्न ही है।) कैसा है वह ज्ञान स्वभाव ? विश्वके ( समस्त पदार्थों के ) ऊपर तिरता हुआ ( उन्हें जानता हुआ भी उनरूप न होता हुआ), प्रत्यक्ष उधोतपनेसे सदा अंतरंगमें प्रकाशमान, अविनश्वर, स्वतःसिद्ध और परमार्थरूप-ऐसा भगवान ज्ञानस्वभाव है।
इसप्रकार एक निश्चयस्तुति तो यह हुई। (ज्ञेय तो द्रव्येंद्रियों, भावेंद्रियों तथा इंद्रियोंके विषयभूत पदार्थोंका और ज्ञायक स्वरूप स्वयं आत्माका-दोनोंका अनुभव, विषयोंकी आसक्तिसे, एकसा होता था; जब भेदज्ञानसे भिन्नत्व ज्ञात किया तब ज्ञेयज्ञायक-संकरदोष दूर हुआ ऐसा यहाँ जानना।)
अब , भाव्यभावक-संकरदोष दूर करके स्तुति कहते हैं :
कर मोहजय ज्ञानस्वभावरु , अधिक जाने आत्मा।
परमार्थ विज्ञायक पुरुष ने, उन हि जितमोही कहा।। ३२।। गाथार्थ:- [ यः तु] जो मुनि [ मोहं] मोहको [ जित्वा ] जीतकर [ आत्मानम् ] अपने आत्माको [ ज्ञानस्वभावाधिकं] ज्ञानस्वभावके द्वारा अन्यद्रव्यभावोंसे अधिक [ जानाति ] जानता है [ तं साधुं ] उस मुनिको [ परमार्थविज्ञायकाः] परमार्थके जानने वाला [ जितमोहं] जितमोह [ब्रुवन्ति ] कहते हैं।
टंकोत्कीर्ण = पत्थरमें कोरी मूर्तिके जैसे एकाकार जैसा का वैसा स्थित।
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