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पूर्वरंग
_( शार्दूलविक्रीडित) एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मन: पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक्। स्म्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु नः।। ६ ।।
श्लोकार्थ:- [ अस्य आत्मनः ] इस आत्माको [ यद् इह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् दर्शनम् ] अन्य द्रव्योंसे पृथक देखना ( श्रद्धान करना) [ एतत् एव नियमात् सम्यग्दर्शनम् ] –ही नियमसे सम्यग्दर्शन है, यह आत्मा [व्याप्तुः ] अपने गुण-पर्यायोंमे व्याप्त रहनेवाला है, और [शुद्धनयतः एकत्वे नियतस्य ] शुद्धनयसे एकत्वमें निश्चित किया गया है तथा [ पूर्ण-ज्ञान-घनस्य ] पूर्णज्ञानघन है। [च] एवं [ तावान् अयं आत्मा ] जितना सम्यग्दर्शन है उतना ही आत्मा है, [ तत् ] इसलिये आचार्य प्रार्थना करते हैं कि “[इमाम् नव-तत्त्व-सन्ततिं मुक्त्वा] इस नवतत्त्वकी परिपाटीको छोड़कर, [अयम् आत्मा एकः अस्तु न: ] यह आत्मा एक ही हमें प्राप्त हो।”
भावार्थ:- सर्व स्वाभाविक तथा नैमित्तिक अपनी अवस्थारूप गुणपर्यायभेदोंमें व्यापनेवाला यह आत्मा शुद्धनयसे एकत्वमें निश्चित किया गया है-शुद्धनयसे ज्ञायकमात्र एक-आकार दिखलाया गया है, उसे सर्व अन्यद्रव्यों और अन्यद्रव्योंके भावोंसे अलग देखना, श्रद्धान करना सो नियमसे सम्यग्दर्शन है। व्यवहारनय आत्मा को अनेक भेदरूप कहकर सम्यग्दर्शनको अनेक भेदरूप कहता है, वहाँ व्यभिचार ( दोष) आता है, नियम नहीं रहता। शुद्धनयकी सीमा तक पहुँचने पर व्यभिचार नहीं रहता इसलिये नियमरूप है, शुद्धनयका विषयभूत आत्मा पूर्णज्ञानघन है-सर्व लोकालोकको जाननेवाला ज्ञानस्वरूप है। ऐसे आत्माका श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन है। यह कहीं पृथक पदार्थ नहीं है,-आत्माका ही परिणाम है, इसलिये आत्मा ही है। अतः जो सम्यग्दर्शन है सो आत्मा है, अन्य नहीं।
__यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये कि जो नय है सो श्रुतप्रमाणका अंश है, इसलिये शुद्धनय भी श्रुतप्रमाणका ही अंश हुवा। श्रुतप्रमाण परोक्ष प्रमाण है, क्योंकि वस्तुको सर्वज्ञके आगमके वचनसे जाना है। इसलिये यह शुद्धनय सर्व द्रव्योंसे भिन्न, आत्माकी सर्व पर्यायोंमें व्याप्त , पूर्ण चैतन्य केवलज्ञानरूप-सर्व लोकालोकको जानने वाले, असाधारण चैतन्यधर्मको परोक्ष दिखाता है। यह व्यवहारी छद्मस्थ जीव आगमको प्रमाण करके, शुद्धनयसे दिखायेगये पूर्ण आत्माका श्रद्धान करे सो वह श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन है। जबतक केवल व्यवहारनयके विषयभूत जीवादिक भेदरूप तत्त्वोंका ही श्रद्धान रहता है तबतक निश्चय सम्यग्दर्शन नहीं होता। इसलिये आचार्य कहते हैं कि इन नव तत्त्वोंकी संतति (परिपाटीको) छोड़कर शुद्धनयका विषयभूत एक आत्मा ही हमें प्राप्त हो; हम दूसरा कुछ नहीं चाहते। यह वीतराग
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