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समयसार
२१२
एकस्य तु परिणामो जायते जीवस्य रागादिभिः। तत्कर्मोदयहेतुभिर्विना जीवस्य परिणामः ।। १४० ।।
यदि जीवस्य तन्निमित्तभूतविपच्यमानपुद्गलकर्मणा सहैव रागाद्य-ज्ञानपरिणामो भवतीति वितर्कः, तदा जीवपुद्गलकर्मणो: सहभूतसुधाहरिद्रयोरिव द्वयोरपि रागद्यज्ञानपरिणामापत्तिः। अथ चैकस्यैव जीवस्य भवति रागाद्यज्ञानपरिणामः, ततः पुद्गलकर्मविपाकाद्धेतोः पृथग्भूतो एव जीवस्य परिणामः।
किमात्मनि बद्धस्पृष्टं किमबद्धस्पृष्टं कर्मेति नयविभागेनाह
जीवे कम्मं बद्धं पुढे चेदि ववहारणयभणिदं। सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्धपुढे हवदि कम्मं ।।१४१ ।।
[ तु] परंतु [ रागादिभिः परिणामः ] रागादिभावसे परिणाम तो [ जीवस्य एकस्य ] जीवके एकके ही [जायते] होता है [ तत् ] इसलिये [कर्मोदयहेतुभि: विना] कर्मोदयरूप निमित्तसे रहित ही अर्थात् भिन्न ही [ जीवस्य ] जीवका [ परिणामः ] परिणाम है।
टीका:-यदि जीवके, रागादि-अज्ञानपरिणामके निमित्तभूत उदयागत पुद्गलकर्मके साथ ही (दोनों एकत्रित होकर ही), रागादि-अज्ञानपरिणाम होता हैऐसा तर्क उपस्थित किया जाये तो, जैसे मिली हुई फिटकरी और हल्दीका-दोनोंका लाल रंगरूप परिणाम होता है उसीप्रकार, जीव और पुद्गलकर्म दोनोंके रागादिअज्ञानपरिणामकी आपत्ति आ जाये, परंतु एक जीवके ही रागादि-अज्ञानपरिणाम तो होता है; इसलिये पुद्गलकर्मका उदय जो कि जीवके रागादि-अज्ञानपरिणामका निमित्त है उससे भिन्न ही जीवके परिणाम हैं।
भावार्थ:-यदि जीव और पुद्गलकर्म मिलकर रागादिरूप परिणमते हैं तो दोनोंके रागादिरूप परिणाम सिद्ध हों। किन्तु पुद्गलकर्म तो रागादिरूप (जीवरागादिरूप) कभी नहीं परिणम सकता; इसलिये पुद्गलकर्मका उदय जो कि रागादिपरिणामका निमित्त है उससे भिन्न ही जीवका परिणाम है।
अब यहाँ नयविभागसे यह कहते हैं कि 'आत्मामें कर्म बद्धस्पृष्ट है या अबद्धस्पृष्ट है':--
है कर्म जीवमें बद्धस्पृष्ट जु कथन यह व्यवहारका । पर बद्धस्पृष्ट न कर्म जीवमें-कथन है नय शुद्धका ।।१४१ ।।
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