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पूर्वरंग
धर्माधिरूढेकधर्मित्वादुद्योतमानद्रव्यत्वः क्रमाक्रमप्रवृत्तविचित्रभावस्वभावत्वादुत्सङ्गितगुणपर्यायः स्वपराकारावभासनसमर्थत्वादुपात्तवैश्वरूप्यैकरूपः प्रतिविशिष्टावगाहगतिस्थितिवर्तनानिमित्तत्वरूपित्वाभावादसाधारणचिद्रूपतास्वभावसद्भावाचाकाशधर्माधर्मक ल-पुद्गलेभ्यो भिन्नोऽत्यन्तमनन्तद्रव्यसङ्करेऽपि स्वरूपादप्रच्यवनाट्टकोत्कीर्णचित् स्वभावो जीवो नाम पदार्थः स समयः, समयत एकत्वेन युगपज्जानाति गच्छति चेति निरुक्तेः।अयं खलु यदा सकलभावस्वभावभासनसमर्थविद्यासमुत्पादकविवेक ज्योतिरुद्गगमनात्समस्तपरद्रव्यात्प्रच्युत्य
दृशिज्ञप्तिस्वभावनियतवृत्तिरूपात्म तत्त्वैकत्वगतत्वेन वर्तते तदा दर्शनज्ञानचारित्रस्थितत्वात्स्वमेकत्वेन युगपज्जानन् गच्छंश्च स्वसमय इति, यदा त्वनाद्यविद्याकन्दलीमूलकन्दायमानमोहानुवृत्तितन्त्रतया दशिज्ञप्तिस्वभावनियतवृत्तिरूपादात्मतत्त्वात्प्रच्युत्य परद्रव्यप्रत्ययमोहरागद्वेषादिभावैकत्वगतत्वेन वर्तते तदा पुद्गलकर्म-प्रदेशस्थितत्वात्परमेकत्वेन युगपज्जानन् गच्छंश्च परसमय इति प्रतीयते। एवं किल समयस्य द्वैविध्यमुद्धावति।।
प्रकाशित करनेकी सामर्थ्य होनेसे जिसने समस्तरूपको प्रकाशनेवाली एकरूपता प्राप्त की है, ऐसा (अर्थात् जिसमें अनेक वस्तुओंके आकार प्रतिभासित होते हैं, ऐसे एक ज्ञानके आकाररूप है)। इस विशेषणसे, ज्ञान अपने को ही जानता है, परको नहीं ,-इसप्रकार एकाकार को ही माननेवालेका, तथा अपनेको नहीं जानता किन्तु परको जानता है, इसप्रकार अनेकाकार को ही माननेवालेका व्यवच्छेद हो गया। और वह, अन्य द्रव्योंके जो विशिष्ट गुण-अवगाहन-गति-स्थिति-वर्तनाहेतुत्व और रूपित्व हैं, उनके अभावके कारण और असाधारण चैतन्यरूपतास्वभावके सद्भावके कारण आकाश, धर्म, अधर्म, काल और पुद्गल-इन पाँच द्रव्योंसे भिन्न है। (इस विशेषणसे एक ब्रह्मवस्तुको ही माननेवालेका खण्डन हो गया।) और वह, अनंत अन्य द्रव्योंके साथ अत्यंत एकक्षेत्रावगाहरूप होनेपर भी, अपने स्वरूपसे न छूटनेसे टंकोत्कीर्ण चैतन्यस्वभावरूप है। (इस विशेषणसे वस्तु-स्वभावका नियम बताया है।) -ऐसा जीव नामक पदार्थ समय है।
जब यह (जीव), सर्व पदार्थोंके स्वभावको प्रकाशित करनेमें समर्थ केवलज्ञानको उत्पन्न करनेवाली भेदज्ञानज्योतिका उदय होनेसे , सर्व परद्रव्योंसे छूटकर दर्शन-ज्ञानस्वभावमें नियत वृत्तिरूप (अस्तित्वरूप) आत्मतत्त्वके साथ एकत्वरूपमें लीन होकर प्रवृत्ति करता है तब दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें स्थित होनेसे अपने स्वरूपको एकत्वरूपसे एक ही समयमें जानता तथा परिणमता हुआ वह ‘स्वसमय' है, इसप्रकार प्रतीत किया जाता है; किन्तु जब वह, अनादि अविद्यारूपी केलेके मूलकी गाँठ की भाँति (पुष्ट हुआ) मोह उसके उदयानुसार प्रवृत्तिकी आधीनतासे, दर्शनज्ञानस्वभावमें नियत वृत्तिरूप आत्मतत्त्वसे छूटकर परद्रव्यके निमित्तसे उत्पन्न मोहरागद्वेषादि भावोंमें एकतारूपसे लीन होकर प्रवृत्त होता है तब पुद्गलकर्मके (कार्माणस्कन्दरूप) प्रदेशोंमें स्थित होनेसे युगपद् परको एकत्वपूर्वक जानता और
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