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जीव-अजीव अधिकार
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तथा जीवे कर्मणां नोकर्मणां च दृष्ट्रा वर्णम्। जीवस्यैष वर्णो जिनैर्व्यवहारत उक्तः ।। ५९ ।। गन्धरसस्पर्शरूपाणि देहः संस्थानादयो ये च। सर्वे व्यवहारस्य च निश्चयद्रष्टारो व्यपदिशन्ति।। ६० ।।
यथा पथि प्रस्थितं कंचित्सार्थ मुष्यमाणमवलोक्य तात्स्थ्यात्तदुपचारेण मुष्यत एष पन्था इति व्यवहारिणां व्यपदेशेऽपि न निश्चयतो विशिष्टाकाशदेशलक्षणः कश्चिदपि पन्था मुष्येत, तथा जीवे बन्धपर्यायेणावस्थितं कर्मणो नोकर्मणो वा वर्णमुत्प्रेक्ष्य तात्स्थ्यात्तदुपचारेण जीवस्यैष वर्ण इति व्यवहारतोऽर्हदेवानां प्रज्ञापनेऽपि न निश्चयतो नित्यमेवामूर्तस्वभावस्योपयोगगुणाधिकस्य जीवस्य कश्चिदपि वर्णोऽस्ति। एवं गन्धरस स्पर्शरूपशरीरसंस्थानसंहननरागद्वेषमोहप्रत्ययकर्मनोकर्मवर्गवर्गणास्पर्धकाध्यात्मस्थान नुभागस्थानयोगस्थानबन्धस्थानोदयस्थानमार्गणास्थानस्थितिबन्धस्थानसंक्लेशस्थाना वशुद्धिस्थानसंयमलब्धिस्थानजीवस्थानगुणस्थानान्यपि व्यवहारतोऽर्हदेवानां प्रज्ञापनेऽपि निश्चयतो नित्यमेवामूर्तस्वभावस्योपयोग गुणेनाधिकस्य
[ तथा] इसीप्रकार [ जीवे ] जीवमें [कर्मणां नोकर्मणां च] कर्मोंका और नोकर्मोंका [ वर्णम् ] वर्ण [दृष्ट्वा ] देखकर [ जीवस्य] जीवका [ एषः वर्ण:] यह वर्ण है' इसप्रकार [ जिनैः ] जिनेन्द्रदेव ने [ व्यवहारतः ] व्यवहारसे [ उक्तः ] कहा है।[ एवं ] इसी प्रकार [गन्धरसस्पर्शरूपाणि ] गंध, रस, स्पर्श, रूप, [ देहः संस्थानादयः ] देह, संस्थान आदि [ये च सर्वे] जो सब हैं, [व्यवहारस्य ] वे सब व्यवहारसे [ निश्चयद्रष्टार:] निश्चयके देखनेवाले [व्यपदिशन्ति ] कहते हैं।
टीका:-जैसे व्यवहारी जन, मार्गमें जाते हुए किसी सार्थ (संघ) को लुटता देखकर, संघकी मार्गमें स्थिति होनेसे उसका उपचार करके, 'यह मार्ग लुटता है' ऐसा कहते हैं, तथापि निश्चयसे देखा जाये तो, जो आकाशके अमुक भागस्वरूप है वह मार्ग तो कुछ नहीं लुटता; इसीप्रकार भगवान अल्तदेव, जीवमें बंधपर्यायसे स्थिति को प्राप्त कर्म और नोकर्मका वर्ण देखकर, कर्म-नोकर्मकी जीव में स्थिति होने से उसका उपचार करके, 'जीवका यह वर्ण है' ऐसा व्यवहारसे प्रगट करते हैं, तथापि निश्चयसे, सदा ही जिसका अमूर्त स्वभाव है और जो उपयोगगुणके द्वारा अन्यद्रव्योंसे अधिक है ऐसे जीवका कोई भी वर्ण नहीं है। इसीप्रकार गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन, राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान, जीवस्थान और गुणस्थान-यह सब ही (भाव) व्यवहारसे अहँतभगवान जीवके कहते हैं, तथापि निश्चयसे, सदा ही जिसका अमूर्त स्वभाव है और जो उपयोगगुण के द्वारा अन्यसे अधिक है
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