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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
चेतयिता तु प्रकृत्यर्थमुत्पद्यते विनश्यति । प्रकृतिरपि चेतकार्थमुत्पद्यते विनश्यति ।। ३१२ ।।
एवं बन्धस्तु द्वयोरपि अन्योन्यप्रत्ययाद्भवेत्। आत्मनः प्रकृतेश्च संसारस्तेन जायते।। ३१३ ।।
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अयं हि आसंसारत एव प्रतिनियतस्वलक्षणानिर्ज्ञानेन परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य करणात्कर्ता सन् चेतयिता प्रकृतिनिमित्तमुत्पत्तिविनाशावासादयति; प्रकृतिरपि चेतयितृनिमित्तमुत्पत्तिविनाशावासादयति। एवमनयोरात्मप्रकृत्योः कर्तृकर्मभावाभावेऽप्यन्योन्यनिमित्तनैमित्तिकभावेन द्वयोरपि बन्धो दृष्टः, ततः संसारः, तत एव च तयोः कर्तृकर्मव्यवहारः ।
गाथार्थ:- [ चेतयिता तु ] चेतक अर्थात् आत्मा [ प्रकृत्यर्थम् ] प्रकृति निमित्तसे [ उत्पद्यते ] उत्पन्न होता है [ विनश्यति ] और नष्ट होता है, [ प्रकृतिः अपि] और प्रकृति भी [ चेतकार्थम् ] चेतक अर्थात् आत्माके निमित्तसे [ उत्पद्यते ] उत्पन्न होती है [ विनश्यति ] तथा नष्ट होती है। [ एवं ] इसप्रकार [अन्योन्यप्रत्ययात् ] परस्पर निमित्तसे [ द्वयोः अपि ] दोनोंका - [ आत्मनः प्रकृतेः च ] आत्माका और प्रकृतिका - [ बन्धः तु भवेत् ] बंध होता है, [ तेन ] और इससे [ संसारः ] संसार [ जायते ] उत्पन्न होता है ।
टीका:- यह आत्मा, ( उसे ) अनादि संसारसे ही ( अपने और परके भिन्न भिन्न) निश्चित स्वलक्षणोंका ज्ञान ( भेदज्ञान ) न होने से दूसरे का और अपना एकत्वका अध्यास करनेसे कर्ता होता हुआ, प्रकृतिके निमित्तसे उत्पत्ति - विनाशको प्राप्त होता है; प्रकृति भी आत्माके निमित्तसे उत्पत्ति विनाशको प्राप्त होती है ( अर्थात् आत्माके परिणामानुसार परिणमित होता है ) । इसप्रकार - यद्यपि वे आत्मा और प्रकृतिके कर्ताकर्मभावका अभाव है, तथापि - परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावसे दोनोंके बंध देखा जाता है, इससे संसार है और इसीसे उनके ( आत्मा और प्रकृतिके) कर्ताकर्मका व्यवहार है।
भावार्थ:-आत्माके और ज्ञानावरणादि कर्मोंकी प्रकृतिओंके परमार्थसे कर्ताकर्मभावका अभाव है तथापि परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावके कारण बंध होता है, इससे संसार है और इसीसे कर्ताकर्मपनका व्यवहार है ।
( अब यह कहते हैं कि जबतक आत्मा प्रकृतिके निमित्तसे उपजना-विनशना न छोड़े तबतक वह अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंयत है' :--)
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