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समयसार
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जा एस पयडीअटुं चेदा णेव विमुंचए। अयाणओ हवे ताव मिच्छादिट्ठी असंजओ।। ३१४ ।। जदा विमुंचए चेदा कम्मफलमणंतयं। तदा विमुत्तो हवदि जाणओ पासओ मुणी।। ३१५ ।।
यावदेष प्रकृत्यर्थ चेतयिता नैव विमुञ्चति। अज्ञायको भवेत्तावन्मिथ्यादृष्टिरसंयतः।। ३१४ ।। यदा विमुञ्चति चेतयिता कर्मफलमनन्तकम्। तदा विमुक्तो भवति ज्ञायको दर्शको मुनिः।। ३१५ ।।
यावदयं चेतयिता प्रतिनियतस्वलक्षणानिर्ज्ञानात् प्रकृतिस्वभावमात्मनो बन्धनिमित्तं न मुञ्चति, तावत्स्वपरयोरेकत्वज्ञानेनाज्ञायको भवति, स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन मिथ्यादृष्टिर्भवति, स्वपरयोरेकत्वपरिणत्या चासंयतो भवति; तावदेव च परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य करणात्कर्ता भवति।
उत्पाद-व्यय प्रकृतिनिमित्त जु, जब हि तक नहिं परितजे । अज्ञानी, मिथ्यात्वी, असंयत तब हि तक वो जीव रहे ।। ३१४ ।। ये आतमा जब ही करमका, फल अनंता परितजे ।
ज्ञायक तथा दर्शक तथा मुनि वो हि कर्मविमुक्त है ।। ३१५ ।।
गाथार्थ:- [ यावत् ] जबतक [एषः चेतयिता] यह आत्मा [प्रकृत्यर्थ ] प्रकृतिके निमित्तसे उपजना-विनशना [न एव विमुञ्चति ] नहीं छोड़ता, [ तावत् ] तब वह [अज्ञायक:] अज्ञायक (अज्ञानी) है, [ मिथ्यादृष्टि:] मिथ्यादृष्टि है, [असंयतः भवेत् ] असंयत है।
[ यदा] जब [ चेतयिता] आत्मा [अनन्तकम् कर्मफलम् ] अनंत कर्म फलको [विमुञ्चति ] छोड़ता है, [ तदा] तब वह [ ज्ञायकः ] ज्ञायक है, [ दर्शक: ] दर्शक है, [ मुनिः ] मुनि है, [ विमुक्तः भवति ] विमुक्त अर्थात् बंधसे रहित है।
टीका:-जबतक यह आत्मा, ( स्व-परके भिन्न भिन्न) निश्चित स्वलक्षणोंका ज्ञान (भेदज्ञान) न होने से, प्रकृतिके स्वभावको-जो कि अपनेको बंधका निमित्त है उसको- नहीं छोड़ता, तबतक स्व-परके एकत्वज्ञानसे अज्ञायक ( अज्ञानी) है, स्वपरके एकत्वदर्शनसे (एकत्वरूप श्रद्धानसे) मिथ्यादृष्टि है और स्वपरकी एकत्वपरिणतिसे असंयत है; और तभीतक परके तथा अपने एकत्व का अध्यास करनेसे कर्ता है।
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