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समयसार
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(शिखरिणी) अकर्ता जीवोऽयं स्थित इति विशुद्धः स्वरसतः स्फुरच्चिज्ज्योतिर्भिश्छुरितभुवनाभोगभवनः। तथाप्यस्यासौ स्याद्यदिह किल बन्धः प्रकृतिभि: स खल्वज्ञानस्य स्फुरति महिमा कोऽपि गहनः।। १९५ ।।
चेदा दु पयडीअट्ठ उप्पज्जइ विणस्सइ। पयडी वि चेययटुं उप्पज्जइ विणस्सइ।। ३१२ ।। एवं बंधो उ दोण्हं पि अण्णोण्णप्पच्चया हवे। अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायदे।। ३१३ ।।
श्लोकार्थ:- [ स्वरसतः विशुद्धः ] जो निजरससे विशुद्ध है, और [ स्फुरत्चित्-ज्योतिर्भि: छुरित-भुवन-आभोग-भवनः] जिसकी स्फुरायमान होती हुई चैतन्यज्योतियों के द्वारा लोकका समस्त विस्तार व्याप्त हो जाता है ऐसा जिसका स्वभाव है, [ अयं जीवः ] ऐसा यह जीव [इति] पूर्वोक्त प्रकार से (परद्रव्यका और परभावोंका) [अकर्ता स्थितः] अकर्ता सिद्ध हुआ, [ तथापि] तथापि [अस्य ] उसे [इह ] इस जगतमें [प्रकृतिभिः] कर्मप्रकृतियों के साथ [यद् असौ बन्धः किल स्यात् ] जो यह (प्रगट) बंध होता है [ सः खलु अज्ञानस्य कः अपि गहन: महिमा स्फूरति] सो वह वास्तवमें अज्ञानकी कोई गहन महिमा स्फुरायमान है।
भावार्थ:-जिसका ज्ञान सर्व ज्ञेयोंमें व्याप्त होनेवाला है ऐसा यह जीव शुद्धनयसे परद्रव्यका कर्ता नहीं है, तथापि उसे कर्मका बंध होता है यह अज्ञानकी कोई गहन महिमा है-जिसका पार नहीं पाया जाता। १९५।
(अब अज्ञानकी इस महिमाको प्रगट करते हैं:-)
पर जीव प्रकृतिके निमित्त जु, उपजता नशता अरे! अरु प्रकृतिका जीवके निमित्त, विनाश अरु उत्पाद है ।। ३१२ ।। अन्योन्यके जु निमित्तसे यों, बंध दोनोंका बने । इस जीव प्रकृति उभयका , संसार इससे होय है ।। ३१३ ।।
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