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समयसार
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उप्पण्णोदयभोगो वियोगबुद्धीए तस्त सो णिच्चं। कंखामणागदस्स य उदयस्स ण कुव्वदे णाणी।। २१५ ।।
उत्पन्नोदयभोगो वियोगबुद्ध्या तस्य स नित्यम्। कांक्षामनागतस्य च उदयस्य न करोति ज्ञानी।। २१५ ।।
कर्मोदयोपभोगस्तावत् अतीतः प्रत्युत्पन्नोऽनागतो वा स्यात्। तत्रातीतस्तावत् अतीतत्वादेव स न परिग्रहभावं बिभर्ति। अनागतस्तु आकांक्ष्यमाण एव परिग्रहभावं बिभृयात्। प्रत्युत्पन्नस्तु स किल रागबुद्ध्या प्रवर्तमान एव तथा स्यात्। न च प्रत्युत्पन्न: कर्मोदयोपभोगो ज्ञानिनो रागबुद्ध्या प्रवर्तमानो दृष्टः, ज्ञानिनोऽज्ञानमयभावस्य रागबुद्धेरभावात्।
[ अथ च] परंतु [ रागवियोगात् ] रागके वियोग (-अभावके) के कारण [ नूनम] वास्तवमें [ परिग्रहभावम् न एति] वह उपभोग परिग्रहभावको प्राप्त नहीं होता।
भावार्थ:-पूर्वबद्ध कर्मके उदय आनेपर उपभोगसामग्री प्राप्त होती है यदि उसे अज्ञानमय रागभावसे भोगा जाये तो वह उपभोग परिग्रहत्वको प्राप्त हो। परंतु ज्ञानीके अज्ञानमय रागभाव नहीं होता। वह जानता है कि जो पहले बाँधा था वह उदयमें आगया और छूट गया है; अब मैं उसे भविष्यमें नहीं चाहता। इसप्रकार ज्ञानी के रागरूप इच्छा नहीं है इसलिये उसका उपभोग परिग्रहत्वको प्राप्त नहीं होता।
अब, यह कहते हैं कि ज्ञानीके त्रिकाल संबंधी परिग्रह नहीं है:
सांप्रत उदयके भोगमें नित्य वियोगबुद्धि ज्ञानीके । अरु भावी कर्मविपाककी , कांक्षा नहिं ज्ञानी करे ।। २१५ ।।
गाथार्थ:- [ उत्पन्नोदयभोगः] जो उत्पन्न ( वर्तमान कालके) उदयका भोग है [ सः] वह, [ तस्य ] ज्ञानीके [ नित्यम् ] सदा [वियोगबुद्ध्या ] वियोगबुद्धिसे होता है [च ] और [अनागतस्य उदयस्य ] आगामी उदयकी [ ज्ञानी] ज्ञानी [ कांक्षाम् ] वांछा [ न करोति ] नहीं करता।
टीका:-कर्मके उदयका उपभोग तीन प्रकारका होता है-अतीत, वर्तमान और भविष्य कालका। इनमेंसे पहला, जो अतीत उपभोग है वह अतीतता ( व्यतीत हो चुका होने) के कारण ही परिग्रह भावको धारण नहीं करता। भविष्यका उपभोग यदि वांछामें आता हो तो ही वह परिग्रहभावको धारण करता है; और जो वर्तमान उपभोग है वह यदि रागबुद्धिसे हो रहा हो तो ही परिग्रहभावको धारण करता है। वर्तमान कर्मोदय उपभोग ज्ञानीके रागबुद्धिसे प्रवर्तमान दिखाई नहीं देता क्योंकि ज्ञानीके
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