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वियोगबुद्धयैव केवलं प्रवर्तमानस्तु स किल न परिग्रहः स्यात्। ततः प्रत्युत्पन्नः कर्मोदयोपभोगो ज्ञानिनः परिग्रहो न भवेत् । अनागतस्तु स किल ज्ञानिनो नाकांक्षित एव, ज्ञानिनोऽज्ञानमयभावस्याकांक्षाया अभावात् । ततोऽनागतोऽपि कर्मोदयोपभोगो ज्ञानिनः परिग्रहो न भवेत् ।
कुतोऽनागतमुदयं ज्ञानी नाकांक्षतीति चेत्
जो वेददि वेदिज्जदि समए समए विणस्सदे उभयं ।
तं जागो दु णाणी उभयं पि ण कंखदि कयावि ।। २९६ ।। यो वेदयते वेद्यते समये समये विनश्यत्युभयम् । तद्ज्ञायकस्तु ज्ञानी उभयमपि न कांक्षति कदापि ।। २१६ ।।
अज्ञानमयभाव जो रागबुद्धि उसका अभाव है; और केवल वियोगबुद्धि ( हेयबुद्धि) से ही प्रवर्तमान वह वास्तवमें परिग्रह नहीं है । इसलिये वर्तमान कर्मोदय-उपभोग ज्ञानीके परिग्रह नहीं है (- परिग्रहरूप नहीं है ) ।
अनागत उपभोग तो वास्तवमें ज्ञानीके वांछित ही नहीं है ( अर्थात् ज्ञानीको उसकी इच्छा ही नहीं होती ) क्योंकि ज्ञानीके अज्ञानमय भाव - वांछाका अभाव है। इसलिये अनागत कर्मोदय - उपभोग ज्ञानीके परिग्रह नहीं है ( - परिग्रहरूप नहीं है ) । भावार्थ:--अतीत कर्मोदय - उपभोग तो व्यतीत ही हो चुका है। अनागत उपभोगकी वांछा नहीं है; क्योंकि ज्ञानी जिस कर्मको अहितरूप जानता है उसके आगामी उदयके भोगकी वांछा क्यों करेगा? वर्तमान उपभोग के प्रति राग नहीं है; क्योंकि वह जिसे हेय जानता है उसके प्रति राग कैसे हो सकता है ? इसप्रकार ज्ञानीके जो तीन काल संबंधी कर्मोदयका उपभोग है वह परिग्रह नहीं है। ज्ञानी वर्तमानमें जो उपभोगके साधन एकत्रित करता है वह तो जो पीड़ा नहीं सही जा सकती उसका उपचार करता है । यह, अशक्तिका दोष है।
अब प्रश्न होता है कि ज्ञानी अनागत कर्मोदय - उपभोगकी वांछा क्यों नहीं करता? उसका उत्तर यह है :
रे! वेद्य वेदक भाव दोनों, समय समय विनष्ट है ।
ज्ञानी रहे ज्ञायक कदापि न उभयकी कांक्षा करे ।। २९६ ।।
गाथार्थ:- [ यः वेदयते ] जो भाव वेदन करता है ( अर्थात् वेदकभाव ) और [ वेद्यते ] जो भाव वेदान किया जाता है ( अर्थात् वेद्यभाव ) [ उभयम् ] वे दोनों भाव [समये समये] समय समय पर [ विनश्यति ] नष्ट हो जाते हैं- [ तद्ज्ञायकः तु ] ऐसा जानने वाला [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ उभयम् अपि ] उन दोनों भावोंकी [ कदापि ] कभी भी [ न कांक्षति ] वांछा नहीं करता ।
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