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समयसार
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जो अपने स्वरूपके प्रति विशेष अनुराग रखता है, उसके वात्सल्य गुण होता है। ७। जो आत्माके ज्ञानगुणको प्रकाशित कर-प्रगट करे, उसके प्रभावना गुण होता है। ८।
ये सभी गुण उनके प्रतिपक्षी दोषों द्वारा जो कर्मबंध होता था उसे नहीं होने देते। और इन गुणोंके सद्भावमें, चारित्रमोहके उदयरूप शंकादि प्रवर्ते तो भी उनकी (-शंकादिकी) निर्जरा ही हो जाती है, नवीन बंध नहीं होता; क्योंकि बंध तो प्रधानतासे मिथ्यात्वके अस्तित्वमें ही कहा है।
सिद्धांतमें गुणस्थानोंकी परिपाटीमें चारित्रमोहके उदयनिमित्तसे सम्यग्दृष्टिके जो बंध कहा है वह भी निर्जरारूप ही (-निर्जरा समान ही) समझना क्योंकि सम्यग्दृष्टिके जैसे पूर्वमें मिथ्यात्वके उदयके समय बंधा कर्म खिर जाता है उसीप्रकार नवीन बंधा हुआ कर्म भी खिर जाता है; उसके उस कर्मके स्वामित्वका अभाव होनेसे वह आगामी बंधरूप नहीं किन्तु निर्जरारूप ही है। जैसे-कोई पुरुष दूसरेका द्रव्य उधार लाया हो तो उसमें उसे ममत्वबुद्धि नहीं होती, वर्तमानमें उस द्रव्यसे कुछ कार्य कर लेना हो तो वह करके पूर्व निश्चयानुसार नियत समय पर उसके मालिक को दे देता है; नियत समयके आने तक वह द्रव्य उसके घर में पड़ा रहे तो भी उसके प्रति ममत्व नहीं होने से उस पुरुषको उस द्रव्यका बंधन नहीं है, वह उसके स्वामीको दे देनेके बराबर ही है; इसीप्रकार-ज्ञानी कर्मद्रव्यको पराया मानता है इसलिये उसे उसके प्रति ममत्व नहीं होता अतः उसके रहते हुए भी वह निर्जरित हुए के समान ही है ऐसा जानना चाहिये।
अब निःशंकितादि आठ गुण व्यवहारनयसे व्यवहारमोक्षमार्गमें इसप्रकार लगाना चाहिये:-जिनवचनोंमें संदेह न करना, भयके आनेपर व्यवहार दर्शन-ज्ञान-चारित्रसे नहीं डिगना, सो निःशंकितत्व है। १। संसार-देह-भोगकी वांछासे तथा परमतकी वांछासे व्यवहारमोक्षमार्गसे चलायमान नहीं होना सो निष्कांक्षितत्व। २। अपवित्र, दुर्गंधित आदि वस्तुओंके निमित्तसे व्यवहारमोक्षमार्गकी प्रवृत्तिके प्रति ग्लानि न करना सो निर्विचिकित्सा है। ३। देव, गुरु, शास्त्र , लौकिक प्रवृत्ति , अन्यमतादिके तत्त्वार्थकें स्वरूप-इत्यादिमें मूढ़ता न रखना, यथार्थ जानकर प्रवृत्ति करना सो अमूढ़दृष्टि है। ४। धर्मात्मामें कर्मोदयसे दोष आ जाये तो उसे गौण करना और व्यवहारमोक्षमार्गकी प्रवृत्तिको बढ़ाना सो उपगूहन अथवा उपबृंहण है। ५। व्यवहारमोक्षमार्गसे च्युत होते हुए आत्माको स्थिर करना सो स्थितिकरण है। ६। व्यवहारमोक्षमार्गमें प्रवृत्ति करनेवाले पर विशेष अनुराग होना सो वात्सल्य है। ७। व्यवहारमोक्षमार्गका अनेक उपायोंसे उद्योत करना सो प्रभावना है। ८। इसप्रकार आठ गुणोंका स्वरूप व्यवहारनयको प्रधान करके कहा है। यहाँ निश्चयप्रधान कथनमें उस व्यवहारस्वरूपकी गौणता है। सम्यग्ज्ञानरूप प्रमाणदृष्टिमें दोनों प्रधान हैं। स्याद्वादमतमें कोई विरोध नहीं है।
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