________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
समयसार
५०२
यथायं
तावद
दृष्टान्तस्तथायं दार्टान्तिक:-चेतयितात्र ज्ञानदर्शनगुणनिर्भरपरापोहनात्मकस्वभावं द्रव्यम्। तस्य तु व्यवहारेणापोह्यं पुद्गलादिपरद्रव्यम्। अथात्र पुद्गलादेः परद्रव्यस्यापोह्यस्यापोहकश्चेतयिता किं भवति किं न भवतीति तदुभयतत्त्वसम्बन्धो मीमांस्यते-यदि चेतयिता पुद्गलादेर्भवति तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसम्बन्धे जीवति चेतयिता पुद्गलादेर्भवन पुद्गलादिरेव भवेत; एवं सति चेतयितु: स्वद्रव्योच्छेदः। न च द्रव्यान्तरसंक्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाव्यस्यास्त्युच्छेदः। ततो न भवति चेतयिता पुद्गलादेः। यदि न भवति चेतयिता पुद्गलादेस्तर्हि कस्य चेतयिता भवति? चेतयितुरेव चेतयिता भवति। ननु कतरोऽन्यश्चेतयिता चेतयितुर्यस्य चेतयिता भवति? न खल्वन्यश्चेतयिता चेतयितुः, किन्तु स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ। किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि। तर्हि न कस्याप्यपोहक:, अपोहकोऽपोहक एवेति निश्चयः।
जैसे यह दृष्टांत है, उसीप्रकार यहाँ नीचे दार्टीत है:-इस जगतमें जो चेतयिता है वह, जिसका ज्ञानदर्शनगुणसे परिपूर्ण, परके अपोहनस्वरूप (त्यागस्वरूप) स्वभाव है ऐसा द्रव्य है। पुद्गलादि परद्रव्य व्यवहारसे उस चेतयिताका अपोह्य (त्याज्य ) है। अब, 'अपोहक ( त्याग करनेवाला) चेतयिता, अपोह्य ( त्याज्य ) जो पुद्गलादि परद्रव्य का है या नहीं ?'-इसप्रकार उन दोनोंका तात्त्विक संबंध यहाँ विचार किया जाता हैं:-यदि चेतयिता पुद्गलादिका हो तो क्या हो यह पहले विचार करते हैं: ‘जिसका जो होता है वह वही होता है, जैसे आत्माका ज्ञान होनेसे ज्ञान वह आत्मा ही है;'ऐसा तात्त्विक संबंध जीवंत होनेसे, चेतयिता यदि पुद्गलादिकी हो तो चेतयिता उस पुद्गलादि ही होना चाहिये (अर्थात् चेतयिता पुद्गलादिस्वरूप ही होना चाहिये); ऐसा होनेपर, चेतयिताके स्वद्रव्यका उच्छेद हो जायेगा। किन्तु द्रव्यका उच्छेद तो नहीं होता. क्योंकि एक द्रव्यका अन्य द्रव्यरूपमें संक्रमण होनेका तो पहले ही निषेध किया है। इसलिये ( यह सिद्ध हुआ कि) चेतयिता पुद्गलादिका नहीं है। (आगे और विचार करते हैं:) यदि चेतयिता पुद्गलादिका नहीं है तो चेतयिता किसका है ? चेतयिताका ही चेतयिता है। (इस) चेतयितासे भिन्न ऐसा दूसरा कौन सा चेतयिता है कि जिसका (यह) चेतयिता है ? (इस) चेतयितासे भिन्न अन्य कोई चेतयिता नहीं है, किन्तु वे दो स्व-स्वामीरूप अंश ही है। यहाँ स्व-स्वामीरूप अंशोंके व्यवहारसे क्या साध्य है ? कुछ भी साध्य नहीं। तब फिर अपोहक (त्याग करनेवाला) किसी का नहीं, अपोहक अपोहक ही है-यह निश्चय है।
[इसप्रकार यहाँ यह बताया गया है कि: 'आत्मा परद्रव्यको त्यागता है'-यह व्यवहारकथन है; 'आत्मा ज्ञानदर्शनमय ऐसा निजको ग्रहण करता है'-ऐसा कहने में भी स्व-स्वामीअंशरूप व्यवहार है; 'अपोहक अपोहक ही है' यह निश्चय है।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com