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समयसार
३५८
यः करोति वत्सलत्वं त्रयाणां साधूनां मोक्षमार्गे। स वत्सलभावयुतः सम्यग्दृष्टिातव्यः ।। २३५ ।।
यतो हि सम्यग्दृष्टि: टङ्कोत्कीर्णेकज्ञायकभावमयत्वेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां स्वस्मादभेदबुद्ध्या सम्यग्दर्शनान्मार्गवत्सलः, ततोऽस्य मार्गानुपलम्भकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जरैव।
विज्जारहमारूढो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा। सो जिणणाणपहावी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।। २३६ ।।
विद्यारथमारूढः मनोरथपथेषु भ्रमति यश्चेतयिता। स जिनज्ञानप्रभावी सम्यग्दृष्टिातव्यः ।। २३६ ।।
गाथार्थ:- [ यः] जो (चेतयिता) [ मोक्षमार्गे] मोक्षमार्गमें स्थित [त्रयाणां साधूनां] सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी तीन साधकों-साधनोंके प्रति (अथवा व्यवहारसे आचार्य, उपाध्याय और मुनि-इन तीनों साधुओंके प्रति] [ वत्सलत्वं करोति ] वात्सल्य करता है, [ सः] वह [वत्सलभावयुतः] वत्सलभावसेयुक्त [ सम्यग्दृष्टि: ] सम्यग्दृष्टि [ ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये।
टीका:-क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रको अपनेसे अभेदबुद्धिसे सम्यक्तया देखता (-अनुभवन करता) है, मार्गवत्सल अर्थात् मोक्षमार्गके प्रति अति प्रीतिवाला है, इसलिये उसे मार्गकी अनुपलब्धिसे होनेवाला बंध नहीं होता, किन्तु निर्जरा ही है।
भावार्थ:-वत्सलत्वका अर्थ प्रीतिभाव। जो जीव मोक्षमार्गरूपी अपने स्वरूपके प्रति प्रीतिवाला-अनुरागवाला हो उसे मार्गकी अप्राप्तिसे होनेवाला बंध नहीं होता, परन्तु कर्म रस देकर खिर जाते हैं इसलिये निर्जरा ही होती है। अब प्रभावना गुणकी गाथा कहते हैं:
चिन्मूर्ति मन-रथपंथमें विद्यारथारूढ़ घूमता। जिनराजज्ञानप्रभावकर सम्यक्तदृष्टी जानना ।। २३६ ।।
गाथार्थ:- [ यः चेतयिता] जो चेतयिता [ विद्यारथम् आरूढः ] विद्यारूपी रथ पर आरूढ़ हुआ ( –चढ़ा हुआ) [ मनोरथपथेषु ] मनरूपी रथके पथमें
* अनुपलब्धि = प्रत्यक्ष नहीं होना वह; अज्ञान; अप्राप्ति।
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