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समयसार
३७०
यथा स एव पुरुषः, स्नेहे सर्वस्मिन्नपनीते सति, तस्यामेव स्वभावत एव रजोबहुलायां भूमौ तदेव शस्त्रव्यायामकर्म कुर्वाणः, तैरेवानेकप्रकारकरणैस्तान्येव सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन्, रजसा न बध्यते, स्नेहाभ्यङ्गस्य बन्धहेतोरभावात्; तथा सम्यग्दृष्टिः, आत्मनि रागादीनकुर्वाण: सन्, तस्मिन्नेव स्वभावत एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुले लोके तदेव कायवाङ्मनःकर्म कुर्वाणः, तैरेवानेकप्रकारकरणैस्तान्येव सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन्, कर्मरजसा न बध्यते, रागयोगस्य बन्धहेतोरभावात्।
[ रजोबन्धः] धूलिका बंध [ खलु ] वास्तवमें [ किम्प्रत्ययिक:] किस कारणसे [न] नहीं होता [ निश्चयतः] यह निश्चयसे [ चिन्त्यताम् ] विचार करो। [तस्मिन् नरे] उस पुरुषमें [ यः सः स्नेहभावः तु] जो वह तेल आदिकी चिकनाई है [ तेन] उससे [ तस्य] उसके [ रजोबन्धः] धूलिका बंध होना [ निश्चयतः विज्ञेयं] निश्चयसे जानना चाहिए, [शेषाभिः कायचेष्टाभिः] शेष कायाकी चेष्टाओंसे [न] नहीं होता। (इसलिये उस पुरुषमें तेल आदि की चिकनाहटका अभाव होनेसे ही धूलि इत्यादि नहीं चिपकती।] [ एवं ] इसप्रकार- [बहुविधेषु योगेषु ] बहुत प्रकारके योगोंमें [ वर्तमानः ] वर्तता हुआ [ सम्यग्दृष्टि:] सम्यग्दृष्टि [ उपयोगे] उपयोगमें [ रागादीन् अकुर्वन् ] रागादिको न करता हुआ [ रजसा ] कर्मरजसे [ न लिप्यते ] लिप्त नहीं होता।
टीका:-जैसे वही पुरुष, सम्पूर्ण चिकनाहटको दूर कर देने पर, उसी स्वभावसे ही अत्यधिक धूलिसे भरी हुई भूमिमें वही शस्त्रव्यायामरूपी कर्मको ( क्रिया) करता हुआ, उन्हीं अनेक प्रकारके करणोंके द्वारा उन्हीं सचित्त-अचित्त वस्तुओंका घात करता हुआ, धूलिसे लिप्त नहीं होता, क्योंकि उसके धूलके लिप्त होनेका कारण जो तेलादिका मर्दन है उसका अभाव है; इसीप्रकार सम्यग्दृष्टि, अपनेमें, रागादिको नहीं करता हुआ, उसी स्वभावसे बहु कर्मयोग्य पुद्गलोंसे भरे हुए लोकमें वही मनवचन-कायकी क्रिया करता हुआ, उन्हीं अनेक प्रकारके करणोंके द्वारा उन्हीं सचित्ताचित्त वस्तुओंका घात करता हुआ, कर्मरूपी रजसे नहीं बँधता, क्योंकि बंधके कारणभूत रागके योगका (-रागमें जुड़नेका) अभाव है।
भावार्थ:-सम्यग्दृष्टिके पूर्वोक्त सर्व संबंध होने पर भी रागके संबंधका अभाव होनेसे कर्मबंध नहीं होता। इसके समर्थनमें पहले कहा जा चुका है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
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