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________________ २५६ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ( शार्दूलविक्रीडित ) मग्नाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानन्ति यन्मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः । विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च ।। १११ ।। श्लोकार्थ :- [ कर्मनयावलम्बनपराः मग्नाः ] कर्मनयके आलंबनमें तत्पर ( कर्मनयके पक्षपाती) पुरुष डूबे हुए हैं [ यत् ] क्योंकि [ ज्ञानं न जानन्ति ] वे ज्ञानको नहीं जानते। [ ज्ञाननय - एषिणः अपि मग्नाः ] ज्ञाननयके इच्छुक ( पक्षपाती) पुरुष भी डूबे हुए हैं [ यत् ] क्योंकि [ अतिस्वच्छन्दमन्द - उद्यमाः ] वे स्वच्छंदतासे अत्यन्त मंदउद्यमी हैं (वे स्वरूप प्राप्तिका पुरुषार्थ नहीं करते, प्रमादी हैं और विषयकषायोंमें वर्तते हैं)। [ते विश्वस्य उपरि तरन्ति ] वे जीव विश्वके ऊपर तैरते हैं [ ये स्वयं सततं ज्ञानं भवन्तः कर्म न कुर्वन्ति ] जो कि स्वयं निरंतर ज्ञानरूप होते हुए - परिणमते हुए कर्म नहीं करते [च] और [ जातु प्रमादस्य वशं न यान्ति ] कभी भी प्रमादवश भी नहीं होते ( - स्वरूपमें उद्यमी रहते हैं)। भावार्थ:-यहाँ सर्वथा एकांत अभिप्रायका निषेध किया है क्योंकि सर्वथा एकांत अभिप्राय ही मिथ्यात्व है। कितने ही लोग परमार्थभूत ज्ञानस्वरूप आत्माको तो जानते नहीं हैं और व्यवहार दर्शनज्ञानचारित्ररूप क्रियाकांडके आडम्बरको मोक्षका कारण जानकर उसमें तत्पर रहते हैं - उसका पक्षपात करते हैं। ऐसे कर्मनयके पक्षपाती लोग-जो ज्ञानको तो नहीं जानते और कर्मनयमें ही खेदखिन्न हैं वे -संसारमें डूबते हैं। और कितने ही लोग आत्मस्वरूपको यथार्थ नहीं जानते तथा सर्वथा एकांतवादी मिथ्यादृष्टियोंके उपदेशसे अथवा अपने आप ही अंतरंगमें ज्ञानका स्वरूप मिथ्या प्रकार से कल्पित करके उसमें पक्षपात करते हैं। वे अपनी परिणतिमें किंचित्मात्र भी परिवर्तन हुए बिना अपनेको सर्वथा अबंध मानते हैं और व्यवहार दर्शनज्ञानचारित्रके क्रियाकांडको निरर्थक जानकर छोड़ देते हैं। ऐसे ज्ञाननयके पक्षपाती लोग जो की स्वरूपका कोई पुरुषार्थ नहीं करते और शुभ परिणामोंको छोड़कर स्वच्छंदी होकर विषय - कषायमें वर्तते हैं वे भी संसारसमुद्रमें डूबते हैं। मोक्षमार्गी जीव ज्ञानरूप परिणमित होते हुए शुभाशुभ कर्मोंको ( अर्थात् शुभाशुभभावोंको ) हेय जानते हैं और शुद्ध परिणतिको ही उपादेय जानतें हैं। वे मात्र अशुभ कर्मोंको ही नहीं किन्तु शुभ कर्मोंको भी छोड़कर, स्वरूपमें स्थिर होने के लिये निरंतर उद्यमी रहते हैं - वे संपूर्ण स्वरूपस्थित होने तक पुरुषार्थ करते ही रहते हैं । जब तक, पुरुषार्थकी अपूर्णताके कारण, शुभाशुभ परिणामोंसे छूटकर स्वरूपमें संपूर्णतया स्थिर नहीं हुआ जा सकता तबतक - - - यद्यपि स्वरूपस्थिरताका Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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