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पुण्य-पाप अधिकार
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( शार्दूलविक्रीडित) यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यङ् न सा कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः। किन्त्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बन्धाय तन्मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः।। ११० ।।
भावार्थ:-कर्मको दूर करके, अपने सम्यक्त्वादिस्वभावरूप परिणमन करनेसे मोक्षका कारणरूप होनेवाला ज्ञान अपनेआप प्रगट होता है, तब फिर उसे कौन रोक सकता है ? । १०९।
अब आशंका उत्पन्न होती है कि जब तक अविरत सम्यग्दृष्टि इत्यादिके कर्मका उदय रहता है तब तक ज्ञान मोक्षका कारण कैसे हो सकता है ? और कर्म तथा ज्ञान दोनों (कर्मके निमित्तसे होनेवाली शुभाशुभ परिणति तथा ज्ञानपरिणति) एक ही साथ कैसे रह सकते हैं ? इसके समाधानार्थ काव्य कहते हैं:---
श्लोकार्थ:- [ यावत् ] जब तक [ ज्ञानस्य कर्मविरतिः ] ज्ञानकी कर्मविरति [सा सम्यक् पाकम् न उपैति] भलीभाँति परिपूर्णताको प्राप्त नहीं होती [ तावत् ] तब तक [ कर्मज्ञानसमुच्चयः अपि विहितः, न काचित् क्षतिः ] कर्म और ज्ञानका एकत्रितपना शास्त्रमें कहा है; उसके एकत्रित रहने में कोई भी क्षति या विरोध नहीं है। [ किन्तु] किन्तु [अत्र अपि] यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि आत्मामें [ अवशतः यत् कर्म समुल्लसति] अवशपने जो कर्म प्रगट होता है [ तत् बन्धाय ] वह तो बंधका कारण है,
और [ एकम् एव परमं ज्ञानं स्थितम् ] जो एक परम ज्ञान है वह एक ही [ मोक्षाय ] मोक्षका कारण है- [ स्वतः विमुक्तं] जो कि ज्ञान स्वतः विमुक्त है ( अर्थात् तीनोंकाल परद्रव्य-भावोंसे भिन्न है)।
भावार्थ:-जबतक यथाख्यात चारित्र नहीं होता तबतक सम्यग्दृष्टिके दो धाराएँ रहती हैं,-शुभाशुभ कर्मधारा और ज्ञानधारा। उन दोनोंके एक साथ रहनेमें कोई भी विरोध नहीं है। (जैसे मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञानके परस्पर विरोध है वैसे कर्मसामान्य और ज्ञानके विरोध नहीं है।) ऐसी स्थितिमें कर्म अपना कार्य करता है और ज्ञान अपना कार्य करता है। जितने अंशमें शुभाशुभ कर्मधारा है उतने अंशमें कर्मबंध होता है और जितने अंशमें ज्ञानधारा है उतने अंशमें कर्मका नाश होता जाता है। विषयकषायके विकल्प या व्रतनियमके विकल्प- अथवा शुद्ध स्वरूपका विचार तक भीकर्मबंधका कारण है; शुद्ध परिणतिरूप ज्ञानधारा ही मोक्षका कारण है। ११० ।
अब कर्म और ज्ञानका नयविभाग बतलाते हैं:
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