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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार २५४ तदुदयादेव ज्ञानस्याचारित्रत्वम्। अत: स्वयं मोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वात्कर्म प्रतिषिद्धम्। ___ (शार्दूलविक्रीडित) संन्यस्तव्यमिदं समस्तमपि तत्कर्मैव मोक्षार्थिना संन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा। सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवन नैष्कर्म्यप्रतिबद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति।। १०९ ।। उसके उदयसे ही ज्ञानके अचारित्रपना होता है। इसलिये, स्वयं मोक्षके कारणका तिरोधायिभावस्वरूप होनेसे कर्मका निषेध किया गया है। भावार्थ:-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र मोक्षके कारणरूप भाव हैं उनसे विपरीत मिथ्यात्वादि भाव हैं; कर्म मिथ्यात्वादि भाव-स्वरूप है। इसप्रकार कर्म मोक्षके कारणभूत भावोंसे विपरीत भावरूप है। पहले तीन गाथाओंमें कहा था कि कर्म मोक्षके कारणरूप भावोंकासम्यक्त्वादिका-घातक है। बाद की एक गाथामें यह कहा है कि कर्म स्वयं ही बंधस्वरूप है। और इन अन्तिम तीन गाथाओंमें कहा है कि कर्म मोक्षके कारणरूप भावोंसे विरोधी भावस्वरूप है-मिथ्यात्वादिस्वरूप है। इसप्रकार यह बताया है कि कर्म मोक्षके कारणका घातक है, बंधस्वरूप है और बंधका कारणस्वरूप है, इसलिये निषिद्ध है। अशुभ कर्म तो मोक्षका कारण है ही नहीं, प्रत्युत बाधक ही है, इसलिये निषिद्ध ही है; परंतु शुभ कर्म भी कर्मसामान्यमें आ जाता है इसलिये वह भी बाधक ही है इसलिये निषिद्ध ही है ऐसा समझना चाहिये। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ:- [ मोक्षार्थिना इदं समस्तम् अपि तत् कर्म एव संन्यस्तव्यम् ] मोक्षार्थीको यह समस्त ही कर्ममात्र त्याग करने योग्य है। [ संन्यस्ते सति तत्र पुण्यस्य पापस्य वा किल का कथा] जहाँ समस्त कर्मोंका त्याग किया जाता है फिर वहाँ पुण्य या पापकी क्या बात है ? (कर्ममात्र त्याज्य है तब फिर पुण्य अच्छा है और पाप बुरा है-ऐसी बातको अवकाश ही कहाँ है? कर्मसामान्यमें दोनों आ गये।) [सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनात् मोक्षस्य हेतुः भवन् ] समस्त कर्मका त्याग होनेपर, सम्यकत्वादि अपने स्वभावरूप होनेसे-परिणमन करने से मोक्षका कारणभूत होता हुआ, [ नैष्कर्म्यप्रतिबद्धम् उद्धतरसं] निष्कर्म अवस्था के साथ जिसका उद्धत (उत्कट) रस प्रतिबद्ध है ऐसा [ ज्ञानं] ज्ञान, [ स्वयं ] अपनेआप [धावति ] दौड़ा चला आता है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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