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कर्ता-कर्म अधिकार
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ततः क्रोधोऽहमित्यादि-विकल्पमात्मनः करोति; ततो निर्विकल्पादकृतकादेकस्माद्विज्ञान घनात्प्रभ्रष्टो वारंवारमनेकविकल्पैः परिणमन् कर्ता प्रतिभाति। ज्ञानी तु सन् ज्ञानात्तदादिप्रसिध्यता प्रत्येकस्वादस्वादनेनोन्मुद्रितभेदसंवेदनशक्ति: स्यात; ततोऽनादि निधनानवरतस्वदमाननिखिलरसान्तरविविक्तात्यन्तमधुरचैतन्यै-करसोऽयमात्मा मिन्नरसाः कषायास्तैः सह यदेकत्वविकल्पकरणं तदज्ञानादित्येवं नानात्वेन परात्मानौ जानाति; ततोऽकृतकमेकं ज्ञानमेवाहं, न पुनः कृतकोऽनेकः क्रोधादिरपीति क्रोधोऽहमित्यादि विकल्पमात्मनो मनागपि न करोति; ततः समस्तमपि कर्तृत्वमपास्यति; ततो नित्यमेवोदासीनावस्थी जानन् एवास्ते; ततो निर्विकल्पोऽकृतक एको विज्ञानघनो भूतोऽत्यन्तमकर्ता प्रतिभाति।
इसलिये मैं क्रोध हूँ' इत्यादि आत्मविकल्प करता है; इसलिये निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानघन ( स्वभाव) से भ्रष्ट होता हुआ बारम्बार अनेक विकल्परूप परिणमित होता हुआ कर्ता प्रतिभासित होता है।
और जब आत्मा ज्ञानी होता है तब, ज्ञानके कारण ज्ञानके प्रारम्भसे लेकर पृथक् पृथक् स्वादका अनुभव न होनेसे (पुद्गलकर्मका और अपने स्वादका-एकरूप नहीं किन्तु भिन्न-भिन्नरूप अनुभव होने से), जिसकी भेदसंवेदनशक्ति प्रगट हो गई है ऐसा होता है; इसलिये वह जानता है कि “अनादिनिधन, निरंतर स्वादमें आनेवाला, समस्त अन्य रसोंसे विलक्षण ( भिन्न), अत्यंत मधुर चैतन्यरस ही एक जिसका रस है ऐसा आत्मा है और कषायें उससे भिन्न रसवाली हैं; उनके साथ जो एकत्व का विकल्प करना है वह अज्ञानसे है"; इसप्रकार परको और अपनेको भिन्नरूप जानता है ; इसलिये ‘अकृत्रिम (नित्य), एक ज्ञान ही मैं हूँ किन्तु कृत्रिम ( अनित्य), अनेक जो क्रोधादिक हैं वह मैं नहीं हूँ'
ऐसा जानता हुआ — मैं क्रोध हूँ' इत्यादि आत्मविकल्प किंचित्मात्र भी नहीं करता; इसलिये समस्त कर्तृत्वको छोड़ देता है; अतः सदा ही उदासीन अवस्थावाला होता हुआ मात्र जानता ही रहता है; और इसलिये निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानघन होता हुआ अत्यंत अकर्ता प्रतिभासित होता है।
भावार्थ:-जो परद्रव्यके और परद्रव्यके भावोंके कर्तृत्वको अज्ञान जानता है वह स्वयं कर्ता क्यों बनेगा ? यदि अज्ञानी बना रहना हो तो परद्रव्यका कर्ता बनेगा! इसलिये ज्ञान होने के बाद परद्रव्यका कर्तृत्व नहीं रहता।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
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