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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ५४२ (उपजाति) समस्तमित्येवमपास्य कर्म त्रैकालिकं शुद्धनयावलम्बी। विलीनमोहो रहितं विकारै श्चिन्मात्रमात्मानमथावलम्बे।। २२९ ।। अथ सकलकर्मफलसंन्यासभावनां नाटयति (आर्या) विगलन्तु कर्मविषतरुफलानि मम भुक्तिमन्तरेणैव। सञ्चेतयेऽहमचलं चैतन्यात्मानमात्मानम्।। २३० ।। निष्प्रमाद दशाको प्राप्त होकर, श्रेणी चढ़कर, केवलज्ञान उत्पन्न करने के सन्मुख होता है। यह, ज्ञानीका कार्य है। २२८ । इसप्रकार प्रत्याख्यानकल्प समाप्त हुआ। अब समस्त कर्मोंके संन्यास (त्याग) की भावनाकी नचने के सम्बन्धका कथन समाप्त करते हुए, कलशरूप काव्य कहते हैं: __श्लोकार्थ:- (शुद्धनयका आलंबन करनेवाला कहता है कि-) [इति एवम् ] पूर्वोक्त प्रकारसे [ त्रैकालिकं समस्तम् कर्म] तीनों कालके समस्त कर्मोको [अपास्य] दूर करके-छोड़कर, [शुद्धनय-अवलम्बी] शुद्धनयावलंबी (अर्थात् शुद्धनयका अवलंबन करनेवाला) और [ विलीन-मोहः] विलीनमोह (अर्थात् जिसका मिथ्यात्व नष्ट हो गया है) ऐसा मैं [अथ] अब [विकारैः रहितं चिन्मात्रम् आत्मानम् ] (सर्व) विकारोंसे रहित चैतन्यमात्र आत्माका [ अवलम्बे ] अवलंबन करता हूँ। २२९ । अब समस्त कर्मफल संन्यासकी भावनाको नचाते हैं:( उसमें प्रथम , उस कथनके समुच्चय-अर्थका काव्य कहते हैं:-) श्लोकार्थ:- ( समस्त कर्मफलकी संन्यास भावना का करनेवाला कहता है कि-) [ कर्म-विष-तरु-फलानि] कर्मरूपी विषवृक्षके फल [ मम भक्तिम् अन्तरेण एव] मेरे द्वारा भोगे बिना ही [ विगलन्तु] खिर जायें; [अहम् चैतन्य-आत्मानम् आत्मानम् अचलं सञ्चेतये ] मैं (अपने) चैतन्यस्वरूप आत्माका निश्चलतया संचेतनअनुभव करता हूँ। भावार्थ:-ज्ञानी कहता हैं कि-जो कर्म उदयमें आता है उसके फल को मैं ज्ञाता-द्रष्टारूपसे जानता-देखता हूँ, उसका भोक्ता नहीं होता, इसलिये मेरे द्वारा भोगे बिना ही वे कर्म खिर जायें; मैं अपने चैतन्यस्वरूप आत्मामें लीन होता हुआ उसका ज्ञाता-दृष्टा ही होऊँ। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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