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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार ।
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न करिष्यामि मनसा चेति ४१। न कारयिष्यामि मनसा चेति ४२। न कुर्वन्तमप्यन्य समनुज्ञास्यामि मनसा चेति ४३। न करिष्यामि वाचा चेति ४४। न कारयिष्यामि वाचा चेति ४५। न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि वाचा चेति ४६ । न करिष्यामि कायेन चेति ४७। न कारयिष्यामि कायेन चेति ४८। न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि कायेन चेति ४९।
(आर्या) प्रत्याख्याय भविष्यत्कर्म समस्तं निरस्तसम्मोहः। आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते।। २२८ ।।
इति प्रत्याख्यानकल्पः समाप्तः।
मैं न तो करूँगा मनसे। ४१। मैं न तो कराऊँगा मनसे। ४२। मैं न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा मनसे। ४३। मैं न तो करूँगा वचनसे। ४४। मैं न तो कराऊँगा वचनसे। ४५। मैं न तो अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा वचनसे। ४६। मैं न तो करूँगा कायसे। ४७। मैं न तो कराऊँगा कायासे। ४८। मैं न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा कायसे। ४९।।
(इसप्रकार, प्रतिक्रमणके समान ही प्रत्याख्यानमें भी ४९ भंग कहे।) अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- (प्रत्याख्यान करनेवाला ज्ञानी कहता है कि-) [ भविष्यत् समस्तं कर्म प्रत्याख्याय] भविष्यके समस्त कर्मोंका प्रत्याख्यान (-त्याग) करके, [ निरस्त-सम्मोहः निष्कर्मणि चैतन्य-आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते] जिसका मोह नष्ट हो गया है ऐसा मैं निष्कर्म (अर्थात् समस्त कर्मोसे रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही (-अपनेसे ही-) निरंतर वर्त रहा हूँ।
भावार्थ:-निश्चयचारित्रमें प्रत्याख्यानका विधान ऐसा है कि-समस्त आगामी कर्मोसे रहित, चैतन्यकी प्रवृत्तिरूप ( अपने) शुद्धोपयोगमें रहना सो प्रत्याख्यान है। इससे ज्ञानी आगामी समस्त कर्मोका प्रत्याख्यान करके अपने चैतन्यस्वरूपमें रहता है।
यहाँ तात्पर्य इसप्रकार जानना चाहिये:-व्यवहारचारित्रमें तो प्रतिज्ञामें जो दोष लगता है उसका प्रतिक्रमण, आलोचना तथा प्रत्याख्यान होता है। यहाँ निश्चयचारित्रकी प्रधानता से कथन है इसलिये शुद्धोपयोगसे विपरीत सर्व कर्म आत्माके दोषस्वरूप हैं। उन समस्त कर्मचेतनास्वरूप परिणामोंका-तीनों कालके कर्मोंका-प्रतिक्रमण , आलोचना तथा प्रत्याख्यान करके ज्ञानी सर्व कर्मचेतनासे भिन्न अपने शुद्धोपयोगरूप आत्माके ज्ञानश्रद्धान द्वारा और उसमें स्थिर होनेके विधान द्वारा
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