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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार २९४ ( मालिनी) निजमहिमरतानां भेदविज्ञानशक्तया भवति नियतमेषां शुद्धतत्त्वोपलम्भः। अचलितमखिलान्यद्रव्यदूरेस्थितानां भवति सति च तस्मिन्नक्षयः कर्ममोक्षः।। १२८ ।। केन क्रमेण संवरो भवतीति चेत् भावार्थ:-जो जीव पहले तो रागद्वेषमोहके साथ मिले हुए मनवचनकायके शुभाशुभ योगोंसे अपने आत्माको भेदज्ञानके बलसे चलायमान नहीं होने दे, और फिर उसी को शुद्धदर्शनज्ञानमय आत्मस्वरूपमें निश्चल करके तथा समस्त बाह्यअभ्यंतर परिग्रहसे रहित होकर कर्म-नोकर्मसे भिन्न अपने स्वरूपमें एकाग्र होकर उसीका ही अनुभव किया करे अर्थात् उसी के ध्यानमें रहे, वह जीव आत्माका ध्यान करनेसे दर्शनज्ञानमय होता हुआ और परद्रव्यमयताका उल्लंघन करता हुआ अल्प कालमे हीं समस्त कर्मोंसे मुक्त हो जाता है। यह संवर होने की रीति है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ:- [ मेदविज्ञानशक्तया निजमहिमरतानां एषां] जो भेदविज्ञानकी शक्तिके द्वारा अपनी (स्वरूपकी) महिमामें लीन रहते हैं उन्हें [ नियतम् ] नियमसे [शुद्धतत्त्वोपलम्भः ] शुद्ध तत्त्वकी उपलब्धि [ भवीत ] होती है; [ तस्मिन् सति च] शुद्ध तत्त्वकी उपलब्धि होनेपर, [अचलितम् अखिल-अन्यद्रव्य-दूरे-स्थितानां ] अचलितरूपसे समस्त अन्यद्रव्योंसे दूर वर्तते हुवे ऐसे उनके, [अक्षयः कर्ममोक्षः भवति] अक्षय कर्ममोक्ष होता है ( अर्थात् उनका कर्मोंसे ऐसा छुटकारा हो जाता है कि पुनः कभी कर्मबन्ध नहीं होता)। १२८।। अब यह प्रश्न होता है कि संवर किस क्रम से होता है ? उसका उत्तर कहते है: Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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