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समयसार
१७
न चास्य ज्ञेयनिष्ठत्वेन ज्ञायकत्वप्रसिद्धेः दाह्यनिष्ठदहनस्येवाशुद्धत्वं, यतो हि तस्यामवस्थायां ज्ञायकत्वेन यो ज्ञातः स स्वरूपप्रकाशनदशायां प्रदीपस्येव कर्तृकर्मणोरनन्यत्वात् ज्ञायक एव।
और जैसे दाह्य (-जलने योग्य पदार्थ) के आकार होनेसे अग्निको दहन कहते हैं तथापि उसके दाह्यकृत अशुद्धता नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञेयाकार होनेसे उस 'भाव' के ज्ञायकता प्रसिद्ध है, तथापि उसके ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है; क्योंकि ज्ञेयाकार अवस्थामें जो ज्ञायकरूपसे ज्ञात हुआ वह स्वरूप-प्रकाशनकी (स्वरूपको जाननेकी) अवस्थामें भी, दीपककी भाँति, कर्ता-कर्मका अनन्यत्व (एकता) होनेसे ज्ञायक ही है-स्वयं जानने वाला है इसलिये स्वयं कर्ता और अपनेको जाना इसलिये स्वयं ही कर्म है। (जैसे दीपक घटपटादिको प्रकाशित करने की अवस्थामें भी दीपक है, और अपनेको-अपनी ज्योतिरूप शिखाको प्रकाशित करनेकी अवस्थामें भी दीपक ही है, अन्य कुछ नहीं; उसीप्रकार ज्ञायकका समझना चाहिये।)
भावार्थ :- अशुद्धता परद्रव्यके संयोगसे आती है। उसमें मूल द्रव्य तो अन्य द्रव्यरूप नहीं होता, मात्र परद्रव्यके निमित्तसे अवस्था मलिन हो जाती है। द्रव्य-दृष्टिसे तो द्रव्य जो है वही है और पर्याय (अवस्था) –दृष्टिसे देखा जाये तो मलिन ही दिखाई देता है। इसीप्रकार आत्माका स्वभाव ज्ञायकत्वमात्र है; और उसकी अवस्था पुद्गलकर्मके निमित्तसे रागादिरूप मलिन है, वह पर्याय है। पर्यायदृष्टिसे देखा जाये तो वह मलिन ही दिखाई देता है और द्रव्यदृष्टिसे देखा जाय तो ज्ञायकत्व तो ज्ञायकत्व ही है; यह कहीं जड़त्व नहीं हुआ। यहाँ द्रव्यदृष्टिको प्रधान करके कहा है। जो प्रमत्त-अप्रमत्तके भेद हैं वे परद्रव्यकी संयोगजनित पर्याय हैं। यह अशुद्धता द्रव्यदृष्टिमें गौण है, व्यवहार है, अभूतार्थ है, असत्यार्थ है, उपचार है। द्रव्यदृष्टि शुद्ध है, अभेद है, निश्चय है, भूतार्थ है, सत्यार्थ है, परमार्थ है। इसलिये आत्मा ज्ञायक ही है; उसमें भेद नहीं है इसलिये वह प्रमत-अप्रमत नहीं है। 'ज्ञायक' नाम भी उसे ज्ञेयको जाननेसे दिया जाता है; क्योंकि ज्ञेयका प्रतिबिंब जब झलकता है तब ज्ञानमें वैसा ही अनुभव होता है। तथापि उसे ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है, क्योंकि जैसा ज्ञेय ज्ञानमें प्रतिभासित हुआ वैसा ज्ञायकका ही अनुभव करने पर ज्ञायक ही है। यह जो मैं जाननेवाला हूँ सो मैं ही हूँ, अन्य कोई नहीं'-ऐसा अपनेको अपना अभेदरूप अनुभव हुआ तब इस जाननेरूप क्रिया का कर्त्ता स्वयं ही है, और जिसे जाना वह कर्म भी स्वयं ही है। ऐसा एक ज्ञायकत्वमात्र स्वयं शुद्ध है। -यह शुद्धनयका विषय है। अन्य जो परसंयोगजनित भेद हैं वे सब भेदरूप अशुद्धद्रव्यार्थिकनयके विषय हैं। अशुद्धद्रव्यार्थिकनय भी शुद्ध द्रव्यकी दृष्टिमें पर्यायार्थिक ही है इसलिये व्यवहारनय ही है ऐसा आशय समझना चाहिये।
यहाँ यह भी जानना चाहिये कि जिनमतका कथन स्याद्वादरूप है, इसलिये
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