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निर्जरा अधिकार
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(स्वागता) वेद्यवेदकविभावचलत्वाद् वेद्यते न खलु कांक्षितमेव। तेन कांक्षति न किञ्चन विद्वान् सर्वतोऽप्यतिविरक्तिमुपैति।।१४७ ।।
तथाहि
बंधुवभोगणिमित्ते अज्झवसाणोदएसु णाणिस्स। संसारदेहविसएसु णेव उप्पज्जदे रागो।। २१७ ।।
बन्धोपभोगनिमित्तेषु अध्यवसानादयेषु ज्ञानिनः। संसारदेहविषयेषु नैवोत्पद्यते रागः।। २१७ ।।
और दूसरा वेदकभाव आये तबतक वेद्यभाव नष्ट हो जाता है; इसप्रकार वांछित भोग तो नहीं होता। इसलिये ज्ञानी निष्फल वांछा क्यों करे ? जहाँ मनोवांछितका वेदन नहीं होता वहाँ वांछा करना अज्ञान है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :--- __ श्लोकार्थ:- वेद्य-वेदक-विभाव-चलत्वात् ] वेद्य-वेदकरूप विभावभावोंकी चलता ( अस्थिरता) होनेसे [ खलु ] वास्तवमें [ कांक्षितम् एव वेद्यते न] वांछितका वेदन नहीं होता; [ तेन] इसलिये [ विद्वान् किञ्चन कांक्षति न] ज्ञानी कुछ भी वांछा नहीं करता; [ सर्वतः अपि अतिविरक्तिम् उपैति] सबके प्रति अति विरक्तताको ( वैराग्यभावको) प्राप्त होता है।
भावार्थ:-अनुभवगोचर वेद्य-वेदक विभावोंमें कालभेद है, उनका मिलाप नहीं होता ( क्योंकि वे कर्मके निमित्तसे होते हैं इसलिये अस्थिर हैं); इसलिये ज्ञानी आगामी काल संबंधी वांछा क्यों करे ? १४७। इसप्रकार ज्ञानीको सर्व उपभोगोंके प्रति वैराग्य है, यह कहते हैं:
संसारतनसंबंधी, अरु बंधोपभोगनिमित्त जो।
उन सर्व अध्यवसानउदय जु, राग होय न ज्ञानीको ।। २१७।। गाथार्थ:- [बन्धोपभोगनिमित्तेषु] बंध और उपभोगके निमित्तभूत [ संसारदेहविषयेषु ] संसारसंबंधी और देहसंबंधी [अध्यवसानोदयेषु ] अध्यवसानके उदयोंमें [ ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [ रागः ] राग [ न एव उत्पद्यते] उत्पन्न नहीं होता।
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