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मोक्ष अधिकार
४१९
यदि नापि करोति छेदं न मुच्यते तेन बन्धनवशः सन्। कालेन तु बहुकेनापि न स नरः प्राप्नोति विमोक्षम्।। २८९ ।। इति कर्मबन्धनानां प्रदेशस्थितिप्रकृतिमेवमनुभागम्।
जानन्नपि न मुच्यते मुच्यते स चैव यदि शुद्धः ।। २९० ।। आत्मबन्धयोxिधाकरणं मोक्षः। बन्धस्वरूपज्ञानमात्रं तद्धेतुरित्येके, तदसत; न कर्मबद्धस्य बन्धस्वरूपज्ञानमात्रं मोक्षहेतु:, अहेतुत्वात्, निगडादिबद्धस्य बन्धस्वरूपज्ञानमात्रवत्। एतेन कर्मबन्धप्रपञ्चरचनापरिज्ञानमात्रसन्तृष्टा उत्थाप्यन्ते।
[ यदि] किन्तु यदि [न अपि छेदं करोति] उस बंधनको स्वयं नहीं काटता [ तेन न मुच्यते] तो वह उससे मुक्त नहीं होता [ तु] और [बन्धनवशः सन् ] बंधनवश रहता हुआ [ बहुकेन अपि कालेन ] बहुत काल में भी [ सः नरः] वह पुरुष [ विमोक्षम् न प्राप्नोति] बंधनसे छूटनेरूप मुक्तिको प्राप्त नहीं करता ; [इति] इसीप्रकार जीव [ कर्मबन्धनानां] कर्म-बंधनोंके [प्रदेशस्थितिप्रकृतिम् एवम् अनुभागम् ] प्रदेश, स्थिति, प्रकृति और अनुभागको [जानन् अपि] जानता हुआ भी [न मुच्यते ] ( कर्मबंधसे) नहीं छूटता, [ च यदि सः एव शुद्धः ] किन्तु यदि वह स्वयं ( रागादिको दूर करके) शुद्ध होता है [ मुच्यते ] तभी छूटता है-मुक्त होता है।
टीका:-आत्मा और बंधको द्विधाकरण (अर्थात् आत्मा और बंधको अलग अलग कर देना) सो मोक्ष है। कितने ही लोग कहते हैं कि 'बंधके स्वरूपका ज्ञानमात्र मोक्षका कारण है ( अर्थात् बंधके स्वरूपको जाननेमात्रसे ही मोक्ष होता है)', किन्तु यह असत् है; कर्मसे बंधे हुए (जीव) को बंधके स्वरूपका ज्ञानमात्र मोक्षका कारण नहीं है, क्योंकि जैसे बेड़ी आदिसे बंधे हुए (जीव) को बंधके स्वरूपका ज्ञानमात्र बंधसे मुक्त होनेका कारण नहीं उसी प्रकार कर्मसे बंधे हुए (जीव) को कर्मबंधके स्वरूपका ज्ञानमात्र कर्मबंधसे मुक्त होनेका कारण नहीं है। इस कथन से, उनका उत्पाथन (खण्डन), किया गया है जो कर्मबंधके प्रपंचका (–विस्तारकी) रचनाके ज्ञानमात्रसे संतुष्ट हो रहे हैं।
भावार्थ:-कोई अन्यमति यह मानते हैं कि बन्धके स्वरूपको जान लेने से ही मोक्ष हो जाता है। उनकी इस मान्यताका इस कथनसे निराकरण कर दिया गया है। जाननेमात्रसे ही बंध नहीं कट जाता, किन्तु वह काटनेसे ही कटता है।
अब यह कहते हैं कि बंधका विचार करते रहनेसे भी बंध नहीं कटता :
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