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बंध अधिकार
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न कायवाङ्मनःकर्म, यथाख्यातसंयतानामपि तत्प्रसङ्गात्। नानेकप्रकारकरणानि, केवलज्ञानिनामपि तत्प्रसङ्गात्।न सचित्ताचित्तवस्तूपघातः, समितितत्पराणामपि तत्प्रसङ्गात्। ततो न्यायबलेनैवैतदायातं, यदुपयोगे रागादिकरणं स बन्धहेतुः।
काय-वचन-मनका कर्म (अर्थात् काय-वचन-मनकी क्रियास्वरूप योग) भी बंधका कारण नही है; क्योंकि यदि ऐसा हो तो यथाख्यात-संयमियोंके भी ( काय-वचनमनकी क्रिया होनेसे) बंधका प्रसंग आ जाएगा। अनेक प्रकारके *करण भी बंधके कारण नहीं हैं; क्योंकि यदि ऐसा हो तो केवलज्ञानियों के भी ( उस करणोंसे) बंधका प्रसंग आ जाएगा। सचित्त तथा अचित्त वस्तओंका घात भी बंधका कारण नहीं है: क्योंकि यदि ऐसा हो तो जो समितिमें तत्पर हैं उनके ( अर्थात् जो यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं ऐसे साधुओंके) भी ( सचित्त तथा अचित्त वस्तुओंके घातसे ) बंधका प्रसंग आ जाएगा। इसलिये न्यायबलसे ही यह फलित हुआ कि, उपयोगमें रागादिकरण (अर्थात् उपयोगमें रागादिकका करना), बंधका कारण है।
भावार्थ:-यहाँ निश्चयनयको प्रधान करके कथन है। जहाँ निर्बाध हेतुसे सिद्धि होती है वही निश्चय है। बंधका कारण विचार करने पर निर्बाधतया यही सिद्ध हुआ कि-मिथ्यादृष्टि पुरुष जिन रागद्वेषमोहभावोंको अपने उपयोगमें करता है वे रागादिक ही बंधके कारण हैं। उनके अतिरिक्त अन्य-बहु कर्मयोग्य पुद्गलोंसे परिपूर्ण लोक, मन-वचन-कायके योग, अनेक करण तथा चेतन-अचेतनका घात-बंधके कारण नहीं हैं; यदि उनसे बंध होता हो तो सिद्धोंके, यथाख्यात चारित्रवानोंके, केवलज्ञानियों के और समितिरूप प्रवृति करनेवाले मुनियोंके बंधका प्रसंग आ जाएगा। परंतु उनके तो बंध होता नहीं है। इसलिये इन हेतुओंमें (-कारणोंमें) व्यभिचार ( दोष) आया। इसलिये यह निश्चय है कि बंधका कारण रागादिक ही हैं।
यहाँ समितिरूप प्रवृत्ति करनेवाले मुनियोंका नाम लिया गया है और अविरत, देशविरतका नाम नहीं लिया इसका कारण यह है कि-अविरत तथा देशविरतके बाह्यसमितिरूप प्रवृत्ति नहीं होती इसलिये चारित्रमोह संबंधी रागसे किंचित् बंध होता है; इसलिये सर्वथा बंधके अभावकी अपेक्षामें उनका नाम नहीं लिया। वैसे अंतरंगकी अपेक्षासे तो उन्हें भी निबंध ही जानना चाहिए।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
करणों ---इन्द्रियाँ
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