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पूर्वरंग
२५
ये खलु पर्यन्तपाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानीयं परमं भावमनुभवन्ति तेषां प्रथम
द्वितीयाद्यनेकपाकपरम्परापच्यमानकार्तस्वरानुभवस्थानीयापरमभावानुभवनशून्यत्वाच्छु समुद्योतितास्खलितैकस्वभावैकभावः
द्ध-द्रव्यादेशितया
शुद्धनय
प्रयोजनवान्;
तु
एवोपरितनैकप्रतिवर्णिका - स्थानीयत्वात्परिज्ञायमानः प्रथमद्वितीयाद्यनेकपाकपरम्परापच्य-मानकार्तस्वरस्थानीयमपरमं भावमनुभवन्ति तेषां पर्यन्तपाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वर-स्थानीयपरमभावानुभवनशून्यत्वादशुद्धद्रव्या
देशितयोपदर्शितप्रतिविशिष्टैकभावानेकभावो
व्यवहारनयो विचित्रवर्णमालिकाप्रयोजनवान्; तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव
स्थानीयत्वात्परिज्ञायमानस्तदात्वे
व्यवस्थितत्वात्। उक्तं च- '' 'जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्छं।।
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टीका:- जो पुरुष अंतिम पाकसे उतरे हुये शुद्ध सुवर्णके समान ( वस्तुके ) उत्कृष्ट भावका अनुभव करते हैं उन्हें प्रथम, द्वितीय आदि पाकोंकी परंपरासे पच्यमान ( पकाये जाते हुये ) अशुद्ध सुवर्णके समान जो अनुत्कृष्ट मध्यम भाव हैं उनका अनुभव नहीं होता; इसलिये, शुद्धद्रव्यको कहनेवाला होनेसे जिसने अचलित अखंड एकस्वभावरूप एक भाव प्रगट किया है ऐसा शुद्धनय ही, सबसे उपरकी एक प्रतिवर्णिका ( स्वर्ण-वर्ण) समान होनेसे, जाननेमें आता हुआ प्रयोजनवान है। परंतु जो पुरुष प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकों (तावों) की परंपरासे पच्यमान अशुद्ध स्वर्णके समान जो ( वस्तुका ) अनुत्कृष्ट मध्यमभावका अनुभव करते हैं उन्हें अंतिम तावसे उतरे हुये शुद्ध स्वर्णके समान उत्कृष्ट भावका अनुभव नहीं होता; इसलिये, अशुद्ध द्रव्यको कहनेवाला होनेसे जिसने भिन्न भिन्न एक एक भावस्वरूप अनेक भाव दिखाये हैं ऐसा व्यवहारनय, विचित्र अनेक वर्णमालाके समान होनेसे, जाननेमें आता ( - ज्ञात होता ) हुआ उस काल प्रयोजनवान है। क्योंकि तीर्थ और तीर्थके फलकी ऐसी ही व्यवस्थिति है । ( जिससे तिरा जाय वह तीर्थ है; ऐसा व्यवहारधर्म है और पार होना व्यवहारधर्मका फल है; अथवा अपने स्वरूपको प्राप्त करना तीर्थफल है । ) अन्यत्र भी कहा है कि :
अर्थ:-आचार्य कहते हैं कि हे भव्य जीवों! यदि तुम जिनमतका प्रवर्तन करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय - दोनों नयोंको मत छोड़ो; क्योंकि व्यवहारनयके बिना तो तीर्थ-व्यवहारमार्गका नाश हो जायगा और निश्चयनयके बिना तत्त्व ( वस्तु ) का नाश हो जायगा ।
भावार्थ:- लोकमें सोनेके सोलह वान ( ताव ) प्रसिद्ध हैं। पंद्रहवे वान तक उसमें चूरी आदि परसंयोगकी कालिमा रहती है, इसलिये तबतक वह अशुद्ध कहलाता है; और ताव देते देते जब अंतिम तावसे उतरता है तब वह सोलहवान या सौटंची शुद्ध सोना कहलाता है । जिन्हें सोलहवानवाले सोनेका ज्ञान, श्रद्धान तथा
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