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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार २४ अथ च केषाञ्चित्कदाचित्सोऽपि प्रयोजनवान। यत: सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरिसीहिं। ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे।। १२ ।। शुद्धः शुद्धादेशो ज्ञातव्यः परमभावदर्शिभिः। व्यवहारदेशिताः पुनर्ये त्वपरमे स्थिता भावे।। १२ ।। जिसका विषय विद्यमान न हो, असत्यार्थ हो, उसे अभूतार्थ कहते हैं। व्यवहारनयको अभूतार्थ कहनेका आशय यह है कि शुद्धनयका विषय अभेद एकाकाररूप नित्य द्रव्य है, उसकी दृष्टिमें भेद दिखाई नहीं देता; इसलिये उसकी दृष्टिमें भेद अविद्यमान, असत्यार्थही कहना चाहिये। ऐसा न समझना चाहिये कि भेदरूप कोई वस्तु ही नहीं है। यदि ऐसा माना जाये तो जैसे वेदान्तमतवाले भेदरूप अनित्यको देखकर अवस्तु मायास्वरूप कहते हैं और सर्वव्यापक एक अभेद नित्य शुद्धब्रह्मको वस्तु कहते हैं वैसा सिद्ध हो और उससे सर्वथा एकांत शुद्धनयके पक्षरूप मिथ्यादृष्टिका ही प्रसंग आये, इसलिये यहाँ ऐसा समझना चाहिये कि जिनवाणी स्याद्वादरूप है, वह प्रयोजनवश नयको मुख्य-गौण करके कहती है। प्राणिओंको भेदरूप व्यवहारका पक्ष तो अनादि कालसे ही है और इसका उपदेश भी बहुधा सर्व प्राणी परस्पर करते हैं। और जिनवाणीमें व्यवहारका उपदेश शुद्धनयका हस्तावलंबन (सहायक) जानकर बहुत किया है; किन्तु उसका फल संसार ही है। शुद्धनयका पक्ष तो कभी आया नहीं और उसका उपदेश भी विरल है-वह कहीं कहीं पाया जाता है। इसलिये उपकारी श्रीगुरुने शुद्धनयके ग्रहणका फल मोक्ष जानकर उसका उपदेश प्रधानतासे दिया है कि --- “शुद्धनय भूतार्थ है, सत्यार्थ है; इसका आश्रय लेनेसे सम्यग्दृष्टि हो सकता है; इसे जाने बिना जब तक जीव व्यवहारमें मग्न है तबतक आत्माका ज्ञानश्रद्धानरूप निश्चय सम्यक्त्व नहीं हो सकता।" ऐसा आशय समझना चाहिये। अब, “यह व्यवहारनय भी किसी किसी को किसी काल में प्रयोजनवान है, सर्वथा निषेध करने योग्य नहीं है; इसलिये उसका उपदेश है" यह कहते हैं: देखै परम जो भाव उसको, शुद्धनय ज्ञातव्य है। ठहरा जु अपरमभावमें, व्यवहारसे उपदिष्ट है।।१२।। गाथार्थ:- [ परमभावदर्शिभिः ] जो शुद्धनय तक पहुँचकर श्रद्धावान हुए तथा पूर्ण ज्ञान-चारित्रवान हो गये उन्हें तो [शुद्धादेशः ] शुद्ध (आत्मा) का उपदेश (आज्ञा) करनेवाला [ शुद्धः] शुद्धनय [ ज्ञातव्यः ] जाननेयोग्य है; [ पुनः ] और [ ये तु] जो जीव [अपरमे भावे ] अपरमभावमें-अर्थात् श्रद्धा तथा ज्ञानचारित्रके पूर्ण भावको नहीं पहुँच सके हैं, साधक अवस्थामें ही [स्थिताः] स्थित हैं वे [ व्यवहारदेशिताः ] व्यवहार द्वारा उपदेश करने योग्य हैं। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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