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समयसार
१ जीव-अजीव अधिकार
विषय
जीव-अजीव दोनों बन्धपर्यायरूप होकर एक देखने में आते है उनमेंजीव का स्वरूप न जानन े से अज्ञानीजन जीव की कल्पना
अध्यवसानादि भावरूप अन्यथा करते हैं, इस प्रकारका वर्णन जीवका स्वरूप अन्यथा कल्पते हैं उनके निषेध की गाथा अध्यवसानादिकभाव पुद्गलमय हैं जीव नहीं हैं ऐसा कथन अध्यवसानादिकभावको व्यवहारनयसे जीव कहा गया है तथा
दृष्टांत
परमार्थरूप जीवका स्वरूप अलिंगग्रहण
वर्णको आदि लेकर गुणस्थानपर्यंत जितने भाव हैं वे जीवके नहीं हैं ऐसा छह गाथाओंमें कथन
ये वर्णादिक भाव जीवके हैं ऐसा व्यवहारनय कहता है,
निश्चयनयनहीं कहता ऐसा दृष्टांतपूर्वक कथन
वर्णादिक भावोंका जीवके साथ तादात्म्य कोई अज्ञानी माने उसका निषेध
२. कर्ताकर्माधिकार
विषय
अज्ञानी जीव क्रोधादिकमें जबतक वर्तता है तबतक कर्मका बंध करता है
आस्रव और आत्माका भेदज्ञान होनेपर बन्ध नहीं होता ज्ञानमात्र से ही बन्धका निरोध कैसे होता है
आस्रवोंसे निवृत्त होने का विधान
ज्ञान होनेका और आस्रवोंकी निवृत्तिका समकाल कैसे है ? कथन ज्ञानस्वरूप हुए आत्मा का चिह्न
आस्रव और आत्माका भेदज्ञान होनेपर आत्मा ज्ञानी होता है तब कर्तृकर्मभाव भी नहीं होता
जीव-पुद्गलकर्मके परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव है तो कर्तृकर्मभाव नहीं कहा जा सकता
| निश्चयनयसे आत्मा और कर्तृकर्मभाव और भोग्तृभोग्यभाव नहीं हैं, अपने में ही कर्तृकर्मभाव और भोग्तृभोग्यभाव है व्यवहारनय आत्मा और पुद्गलकर्म के कर्तृकर्मभाव और भोग्तृभोग्यभाव कहता है
आत्माको पुद्गलकर्मका कर्ता और भोक्ता माना जाए तो महान दोष-स्वपरके अभिन्नपने का प्रसंग आता है; वह मिथ्यात्व होने से जिनदेव सम्मत नहीं है
मिथ्यात्वादि आस्रव जीव-अजीवके भेद से दो प्रकार के हैं ऐसा
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गाथा
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