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समयसार
२००
(उपजाति) स्थितेति जीवस्य निरन्तराया स्वभावभूता परिणामशक्तिः। तस्यां स्थितायां स करोति भावं यं स्वस्य तस्यैव भवेत्स कर्ता।। ६५ ।।
तथाहि
जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स कम्मस्स। णाणिस्स स णाणमओ अण्णाणमओ अणाणिस्स।।१२६ ।।
यं करोति भावमात्मा कर्ता स भवति तस्य कर्मणः। ज्ञानिनः स ज्ञानमयोऽज्ञानमयोऽज्ञानिनः ।। १२६ ।।
एवमयमात्मा स्वयमेव परिणामस्वभावोऽपि यमेव भावमात्मनः करोति तस्यैव
श्लोकार्थ:- [इति] इसप्रकार [जीवस्य] जीवकी [स्वभावभूता परिणामशक्ति:] स्वभावभूत परिणमनशक्ति [ निरन्तराया स्थिता] निर्विघ्न सिद्ध हुई। [तस्यां स्थितायां ] यह सिद्ध होनेपर, [ सः स्वस्य यं भावं करोति ] जीव अपने जिस भावको करता है [ तस्य एव सः कर्ता भवेत् ] उसका वह कर्ता होता है।
भावार्थ:-जीव भी परिणामी है; इसलिये स्वयं जिस भावरूप परिणमता है उसका कर्ता होता है। ६५ ।
अब यह कहते हैं कि ज्ञानी ज्ञानमय भावका और अज्ञानी अज्ञानमय भावका कर्ता है:
जिस भावको आत्मा करे, कर्ता बने उस कर्मका ।
वो ज्ञानमय है ज्ञानिका , अज्ञानमय अज्ञानीका ।। १२६ ।।
गाथार्थ:- [ आत्मा ] आत्मा [यं भावम् ] जिस भावको [ करोति ] करता है [तस्य कर्मणः ] उस भावरूप कर्मका [ सः] वह [कर्ता] कर्ता [भवति ] होता है; [ ज्ञानिनः] ज्ञानीको तो [ सः ] वह भाव [ ज्ञानमयः ] ज्ञानमय है और [अज्ञानिनः] अज्ञानीको [ अज्ञानमयः ] अज्ञानमय है।
टीका:-इसप्रकार यह आत्मा स्वयमेव परिणामस्वभाववाला है तथापि अपने जिस भावको करता है उस भावका ही
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