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समयसार
२८४
तत्रादावेव सकलकर्मसंवरणस्य परमोपायं भेदविज्ञानमभिनन्दतिउवओगे उवओगो कोहादिसु णत्थि को वि उवओगो। कोहो कोहे चेव हि उवओगे णत्थि खलु कोहो।।१८१ ।। अट्ठवियप्पे कम्मे णोकम्मे चावि णत्थि उवओगो। उवओगम्हि य कम्मं णोकम्मं चावि णो अत्थि।। १८२ ।। एदं तु अविवरीदं णाणं जइया दु होदि जीवस्स। तइया ण किंचि कव्वदि भावं उवओगसुद्धप्पा।। १८३ ।। उपयोगे उपयोगः क्रोधादिषु नास्ति कोऽप्युपयोगः। क्रोधः क्रोधे चैव हि उपयोगे नास्ति खलु क्रोधः।। १८१ ।।
भावार्थ:-अनादि कालसेजो आस्रवका विरोधी है ऐसे संवरको जीतकर आस्रव मदसे गर्वित हुआ है। उस आस्रवका तिरस्कार करके उसपर जिसने सदा के लिये विजय प्राप्त की है ऐसे संवरको उत्पन्न करता हुआ, समस्त पररूपसे भिन्न और अपने स्वरूपमें निश्चल यह चैतन्यप्रकाश निजरसकी अतिशयतापूर्वक निर्मलतासे उदयको प्राप्त हुआ है। १२५ ।
संवर अधिकारमें प्रारम्भ में ही, श्री कुंदकुंदाचार्य सकल कर्मका संवर करनेके लिये उत्कृष्ट उपाय जो भेदविज्ञान है उसकी प्रशंसा करते हैं:
उपयोगमें उपयोग , को उपयोग नहिं क्रोधादिमें । है क्रोध क्रोधविर्षे हि निश्चय , क्रोध नहिं उपयोगमें ।। १८१।। उपयोग है नहिं अष्टविध , कर्मों अवरु नोकर्ममें । वे कर्म अरु नोकर्म भी कुछ हैं नहीं उपयोगमें ।। १८२।। ऐसा विपरीत ज्ञान जब ही प्रगटता है जीवके ।
तब अन्य नहीं कुछ भाव वह उपयोगशुद्धात्मा करे ।। १८३।। गाथार्थ:- [ उपयोगः] उपयोग [ उपयोगे] उपयोगमें है, [क्रोधादिषु ] क्रोधादिमें [कोऽपि उपयोगः] कोई भी उपयोग [ नास्ति] नहीं है; [च] और [ क्रोधः ] क्रोध [ क्रोधे एव हि ] क्रोधमें ही है, [ उपयोगे] उपयोगमें [ खलु ] निश्चयसे[ क्रोधः ] क्रोध [ नास्ति ] नहीं है।
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