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(अनुष्टुभ् ) चिच्छक्तिव्याप्तसर्वस्वसारो जीव इयानयम् । अतोऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि भावा: पौद्गलिका अमी ।। ३६ ।।
जीवस्स णत्थि वण्णो ण वि गंधो ण वि रसो ण वि य फासो । ण विरूवं ण सरीरं ण वि संठाणं ण संहणणं ।। ५० । जीवस्स णत्थि रागो ण वि दोसो णेव विज्जदे मोहो । णो पच्चया ण कम्मं णोकम्मं चावि से णत्थि ।। ५१ ।।
[ आत्मानम् ] आत्माका [ आत्मा ] भव्यात्मा [ आत्मानि ] आत्मामें ही [ साक्षात् कलयतु] अभ्यास करो, साक्षात् अनुभव करो।
भावार्थ:-यह आत्मा परमार्थसे समस्त अन्यभावोंसे रहित चैतन्यशक्तिमात्र है; उसके अनुभवका अभ्यास करो ऐसा उपदेश है । ३५ ।
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अब चित्शक्तिसे अन्य जो भाव हैं वे सब पुद्गलद्रव्यसंबंधी हैं ऐसी आगे की गाथाओंकी सूचनारूपसे श्लोक कहते हैं:
व्याप्त
श्लोकार्थ :- [चित् - शक्ति - व्याप्त - सर्वस्व - सारः ] चैतन्यशक्तिसे जिसका सर्वस्व - सार है ऐसा [ अयम् जीव: ] यह जीव [ इयान् ] इतना मात्र ही है; [अत: अतिरिक्ताः ] इस चित्शक्तिसे शून्य [ अमी भावा: ] जो ये भाव हैं [ सर्वे अपि ] वे सभी [ पौद्गलिकाः ] पुद्गलजन्य हैं - पुद्गलके ही हैं । ३६ ।
ऐसे इन भावोंका व्याख्यान छह गाथाओंमें करते हैं:
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नहिं वर्ण जीवके, गंध नहिं नहिं स्पर्श, रस जीवके नहीं । नहिं रूप अर संहनन नहिं, संस्थान नहिं, तन भी नहीं ।। ५० ।।
नहिं राग जीवके, द्वेष नहिं, अरु मोह जीवके है नहीं । प्रत्यय नहीं, नहिं कर्म अरु नोकर्म भी जीवके नहीं ।। ५१ ।।
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