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समयसार
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रसरूपगन्धस्पर्शशब्दसंस्थानव्यक्तत्वाभावेऽपि स्वसंवेदन-बलेन नित्यमात्मप्रत्यक्षत्वे सत्यनुमेयमात्रत्वाभावादलिङ्गग्रहणः। समस्तविप्रति-पत्तिप्रमाथिना विवेचकजनसमर्पित सर्वस्वेन सकलमपि लोकालोकं कवलीकृत्यात्यन्तसौहित्यमन्थरेणेव सकलकालमेव मनागप्यविचलितानन्य-साधारणतया स्वभावभूतेन स्वयमनुभूयमानेन चेतनागुणेन नित्यमेवान्तःप्रकाशमानत्वात् चेतनागुणश्च। स खलु भगवानमलालोक इहैकष्टोत्कीर्णः प्रत्यग्ज्योतिर्जीवः।
(मालिनी) सकलमपि विहायाहाय चिच्छक्तिरिक्तं स्फुटतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्रम्। इममुपरि चरन्तं चारु विश्वस्य साक्षात कलयतु परमात्मात्मानमात्मन्यनन्तम्।।३५ ।।
इसप्रकार रस, रूप, गंध, स्पर्श, शब्द, संस्थान और व्यक्तताका अभाव होनेपर भी स्वसंवेदनके बलसे स्वयं सदा प्रत्यक्ष होनेसे अनुमानगोचरमात्रता के अभावके कारण (जीवको) अलिंगग्रहण कहा जाता है।
___ अपने अनुभवमें आनेवाले चेतनागुणके द्वारा सदा अंतरंगमें प्रकाशमान है इसलिये (जीव) चेतनागुणवाला है। वह चेतनागुण समस्त विप्रतिपत्तियोंको (जीवको अन्य प्रकारसे माननेरूप झगड़ोंको) नाश करने वाला है, जिसने अपना सर्वस्व भेदज्ञानी जीवोंको सौप दिया है। जो समस्त लोकालोकको ग्रासीभूत करके मानों अत्यंत तृप्तिसे उपशान्त हो गया हो इसप्रकार ( अर्थात् अत्यंत स्वरूप-सौख्य से तृप्त तृप्त होने के कारण स्वरूपमेंसे बाहर निकलनेका अनुद्यमी हो इसप्रकार ) सर्व कालमें किंचित्मात्र भी चलायमान नहीं होता और इस तरह सदा लेशमात्र भी नहीं चलित अन्यद्रव्यसे असाधारणता होनेसे जो (असाधारण) स्वभावभूत है।
-ऐसा चैतन्यरूप परमार्थस्वरूप जीव है। जिसका प्रकाश निर्मल है ऐसा यह भगवान इस लोकमें एक, टंकोत्कीर्ण , भिन्न ज्योतिरूप विराजमान है।
__ अब इसी अर्थ का कलशरूप काव्य कहकर ऐसे आत्माको अनुभवकी प्रेरणा करते हैं:
श्लोकार्थ:- [ चित्-शक्ति-रिक्तं] चित्शक्तिसे रहित [ सकलम् अपि] अन्य समस्त भावोंको [ अहाय] मूलसे [विहाय ] छोड़कर [च] और [ स्फुटतरम् ] प्रगटरूपसे[ स्वं चित्-शक्तिमात्रम् ] अपने चित्शक्तिमात्र भावका [ अवगाह्य ] अवगाहन करके, [ विश्वस्य उपरि ] समस्त पदार्थ समूहरूप लोकके ऊपर चारु चरन्तं ] सुंदर रीतिसे प्रवर्तमान ऐसे [ इमम् ] यह [ परम् ] एकमात्र [ अनन्तम् ] अविनाशी
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