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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कर्ता-कर्म अधिकार १७१ तथाहि-यथा खलु भूताविष्टोऽज्ञानाद्भूतात्मानावेकीकुर्वन्नमानुषोचितविशिष्टचेष्टावष्टम्भनिर्भरभयङ्करारम्भगम्भीरामानुषव्यवहारतया तथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति, तथायमात्माप्यज्ञानादेव भाव्यभावकौ परात्मानावेकीकुर्वन्नविकारानुभूतिमात्रभावकानुचितविचित्रभव्यक्रोधादिविकारकरम्बितचैतन्यपरिणामविकारतया तथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति। यथा वाऽपरीक्षकाचार्यादेशेन मुग्धः कश्चिन्महिषध्यानाविष्टोऽज्ञानान्महिषात्मानावेकीकुर्वन्नात्मन्यभ्रङ्कषविषाणमहामहिषत्वाध्यासात्प्रच्युतमानुषोचितापवरकद्वारविनिस्सरणतया तथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति, तथायमात्माऽप्यज्ञाना-द् ज्ञेयज्ञायकौ परात्मानावेकीकुर्वन्नात्मनि परद्रव्याध्यासान्नोइन्द्रियविषयीकृतधर्माधर्माकाशकालपुद्गल जीवान्तरनिरुद्धशुद्धचैतन्यधातुतया तथेन्द्रियविषयीकृतरूपिपदार्थतिरोहित-केवलबोधतया भृतककलेवरमूछितपरमामृत विज्ञानघनतया च तथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति। यह प्रगट दृष्टांतसे समझाते हैं:-जैसे भूताविष्ट पुरुष अज्ञानके कारण भूतको और अपनेको एक करता हुआ, अमनुष्योचित विशिष्ट चेष्टाओंके अवलंबन सहित भयंकर आरंभ (कार्य) से युक्त अमानुषिक व्यवहारवाला होनेसे उस प्रकारके भावका कर्ता प्रतिभासित होता है; इसीप्रकार यह आत्मा भी अज्ञानके कारण ही भाव्य-भावकरूप परको और अपनेको एक करता हुआ, अविकार अनुभूतिमात्र भावकके लिये अनुचित विचित्र भाव्यरूप क्रोधादि विकारोंसे मिश्रित चैतन्यपरिणामविकारवाला होनेसे उस प्रकारके भावका कर्ता प्रतिभासित होता है। जैसे अपरीक्षक आचार्यके उपदेशसे भैंसेका ध्यान करता हुआ कोई भोला पुरुष अज्ञानके कारण भैंसेको और अपनेको एक करता हुआ , ' मैं गगनस्पर्शी सींगोवाला बड़ा भैंसा हूँ' ऐसे अध्यासके कारण मनुष्योचित मकान के द्वार में से बाहर निकलने से च्युत होता हुआ उसप्रकार के भावका कर्ता प्रतिभासित होता है; इसीप्रकार यह आत्मा भी अज्ञानके कारण ज्ञेयज्ञायकरूप परको और अपनेको एक करता हुआ, 'मैं परद्रव्य हूँ' ऐसे अध्याससे कारण मनके विषयभूत किये गये धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीवके द्वारा ( अपनी) शुद्ध चैतन्यधातु रुकी होनेसे तथा इंद्रियोंके विषयरूप किये गये रूपी पदार्थों के द्वारा (अपना) केवल बोध (-ज्ञान) ढंका हुआ होनेसे और मृतक शरीरके द्वारा परम अमृतरूप विज्ञानघन ( स्वयं) मूर्छित हुआ होनेसे उस प्रकारके भावका कर्ता प्रतिभासित होता है। भावार्थ:-यह आत्मा अज्ञानके कारण, अचेतन कर्मरूप भावकके क्रोधादि भाव्यको चेतन भावकके साथ एकरूप मानता है; और वह, जड़ ज्ञेयरूप धर्मादिद्रव्योंको भी ज्ञायकके साथ एकरूप मानता है। इसलिये वह सविकार और सोपाधिक चैतन्यपरिणामका कर्ता होता है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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