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समयसार
४८८
जह सिप्पिओ दु चेटुं कुव्वदि हवदि य तहा अणण्णो से। तह जीवो वि य कम्मं कुवदि हवदि य अणण्णो से।। ३५४ ।। जह चेटुं कुव्वंतो दु सिप्पिओ णिच्चदुक्खिओ होदि। तत्तो सिया अणण्णो तह चेट्ठतो दुही जीवो।। ३५५ ।।
यथा शिल्पिकस्तु कर्म करोति न च स तु तन्मयो भवति। तथा जीवोऽपि च कर्म करोति न च तन्मयो भवति।। ३४९ ।। यथा शिल्पिकस्तु करणैः करोति न च स तु तन्मयो भवति। तथा जीवः करणैः करोति न च तन्मयो भवति।। ३५० ।। यथा शिल्पिकस्तु करणानि गृह्णाति न च स तु तन्मयो भवति। तथा जीवः करणानि तु गृह्णाति न च तन्मयो भवति।। ३५१ ।।
शिल्पी करे चेष्टा अवरु, उस ही से शिल्पी अनन्य है। त्यों जीव कर्म करे अवरु, उस ही से जीव अनन्य है ।। ३५४ ।। चेष्टित हुआ शिल्पी निरन्तर दुखित जैसा होय है । अरु दुखसे शिल्पी अनन्य, त्यों जीव चेष्टमान दुखी बने ।। ३५५ ।।
गाथार्थ:- [ यथा] जैसे [ शिल्पिकः तु] शिल्पी (-स्वर्णकार-सोनी आदि कलाकार) [ कर्म] कुंडल आदि कर्म (कार्य) [ करोति] करता है [ सः तु] परंतु वह [ तन्मयः न च भवति] तन्मय ( उसमय, कुंडकादिमय) नहीं होता, [ तथा] उसीप्रकार [जीवः अपि च] जीव भी [ कर्म ] पुण्यपापादि पुद्गल कर्म [ करोति] करता है [ न च तन्मयः भवति ] परंतु तन्मय [ पुद्गलकर्ममय ] नहीं होता। [ यथा] जैसे [ शिल्पिकः तु] शिल्पी [ करणैः ] हथौड़ा आदि करणों ( साधनों) के द्वारा [ करोति] (कर्म) करता है [ सः तु] परंतु वह [ तन्मयः न च भवति] तन्मय (हथौड़ा आदि करणमय) नहीं होता, [ तथा] उसीप्रकार [ जीवः ] जीव [करणै: ] (मन-वचन-कायरूप) करणों के द्वारा [ करोति] (कर्म) करता है [ न च तन्मयः भवति] परंतु तन्मय (मन-वचन-कायरूप करणमय) नहीं होता। [यथा] जैसे [ शिल्पिक: तु] शिल्पी [ करणानि ] करणोंको [ गृहाति] ग्रहण करता है [ स: तु] परंतु वह [ तन्मयः न च भवति ] तन्मय नहीं होता, [ तथा ] उसीप्रकार [ जीवः ] जीव [करणानि तु] करणोंको [गृह्णाति] ग्रहण करता है [ न च तन्मयः भवति] परंतु तन्मय (करणमय) नहीं होता।
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