________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
समयसार
२०४
अज्ञानमयाद्भावादज्ञानश्चैव जायते भावः। यस्मात्तस्माद्भावा अज्ञानमया अज्ञानिनः।। १२९ ।।
यतो ह्यज्ञानमयाद्भावाद्यः कश्चनापि भावो भवति स सर्वोऽप्यज्ञानमयत्वमनतिवर्तमानोऽज्ञानमय एव स्यात्, ततः सर्वे एवाज्ञानमया अज्ञानिनो भावाः। यतश्च ज्ञानमयाद्भावाद्यः कश्चनापि भावो भवति स सर्वोऽपि ज्ञानमयत्वमनतिवर्तमानो ज्ञानमय एव स्यात्, ततः सर्वे एव ज्ञानमया ज्ञानिनो भावाः।
(अनुष्टुभ् ) ज्ञानिनो ज्ञाननिर्वृत्ताः सर्वे भावा भवन्ति हि। सर्वेऽप्यज्ञाननिर्वृत्ता भवन्त्यज्ञानिनस्तु ते॥६७ ।।
अथैतदेव दृष्टान्तेन समर्थयते
[च ] और, [ यस्मात् ] क्योंकि [अज्ञानमयात् भावात् ] अज्ञानमय भावमेंसे [अज्ञान: एव ] अज्ञानमय ही [ भावः ] भाव [ जायते ] उत्पन्न होता है [ तस्मात् ] इसलिये [अज्ञानिनः ] अज्ञानियोंके [ भावाः ] भाव [ अज्ञानमयाः ] अज्ञानमय ही होते हैं।
टीका:-वास्तवमें अज्ञानमय भावमेंसे जो कोई भी भाव होता है वह सब ही अज्ञानमयताका उल्लंघन न करता हुआ अज्ञानमय ही होता है, इसलिये अज्ञानियोंके सभी भाव अज्ञानमय होते हैं। और ज्ञानमय भावमेंसे जो कोई भी भाव होता है वह सब ही ज्ञानमयताका उल्लंघन करता हुआ ज्ञानमय ही होता है, इसलिये ज्ञानियों के सब ही भाव ज्ञानमय होते हैं।
भावार्थ:-ज्ञानीका परिणमन अज्ञानीके परिणमनसे भिन्न ही प्रकार का है। अज्ञानीका परिणमन अज्ञानमय, और ज्ञानीका ज्ञानमय है; इसलिये अज्ञानीके क्रोध, मान, व्रत, तप इत्यादि समस्त भाव अज्ञानजातिका उल्लंघन करनेसे अज्ञानमय ही हैं और ज्ञानीके समस्त भाव ज्ञानजातिका उल्लंघन करनेसे ज्ञानमय ही हैं।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [ सर्वे भावाः ] समस्त भाव [ ज्ञाननिर्वृत्ताः हि] ज्ञानसे रचित [-रचायेला] [भवन्ति ] होते हैं [ तु] और [ अज्ञानिनः ] अज्ञानीके [ सर्वे अपि ते ] समस्त भाव [ अज्ञाननिर्वृत्ताः ] अज्ञानसे रचित [भवन्ति ] होते हैं। ६७।
अब इसी अर्थको दृष्टांतसे दृढ़ करते हैं:
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com