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कर्ता-कर्म अधिकार
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परिणामादन्यत् मूर्तं पुद्गलकर्म; यस्तु मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादि: जीवः स मूर्तात्पुद्गलकर्मणोऽन्यश्चैतन्यपरिणामस्य विकारः।
मिथ्यादर्शनादिश्चैतन्यपरिणामस्य विकारः कुत इति चेत्उवओगस्स अणाई परिणामा तिण्णि मोहजुत्तस्स। मिच्छत्तं अण्णाणं अविरदिभावो य णादव्वो।। ८९ ।।
उपयोगस्यानादयः परिणामास्त्रयो मोहयुक्तस्य। मिथ्यात्वमज्ञानमविरतिभावश्च ज्ञातव्यः ।। ८९ ।।
उपयोगस्य हि स्वरसत एव समस्तवस्तुस्वभावभूतस्वरूप-परिणामसमर्थत्वे सत्यनादिवस्त्वन्तरभूतमोहयुक्तत्वान्मिथ्यादर्शनमज्ञानम-विरतिरिति त्रिविधिः परिणाम विकारः। स तु तस्य स्फटिकस्वच्छताया इव परतोऽपि प्रभवन् दृष्टः। यथा हि स्फटिकस्वच्छतायाः स्वरूपपरिणामसमर्थत्वे सति
परिणामसे अन्य मूर्तिक पुद्गलकर्म हैं; और जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति आदि जीव हैं वे, मूर्तिक पुद्गलकर्मसे अन्य चैतन्यपरिणामके विकार हैं।
अब पुनः प्रश्न करता है कि-- मिथ्यादर्शनादि चैतन्यपरिणामका विकार कहाँ से हुआ ? इसका उत्तर गाथामें कहते हैं:
है मोहयुत उपयोगका परिणाम तीन अनादिका। -मिथ्यात्व अरु अज्ञान, अविरतभाव ये त्रय जानना।। ८९ ।।
गाथार्थ:- [ मोहयुक्तस्य ] अनादिसे मोहयुक्त होनेसे [ उपयोगस्य ] उपयोगके [अनादयः ] अनादिसे लेकर [त्रयः परिणामाः] तीन परिणाम हैं; वे [ मिथ्यात्वम् ] मिथ्यात्व, [अज्ञानम् ] अज्ञान [च अविरतिभावः ] और अविरतिभाव (ऐसे तीन) [ ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये।
___टीका:-यद्यपि निश्चयसे अपने निजरससे ही सर्व वस्तुओंकी अपनी स्वभावभूत स्वरूप-परिणमनमें समर्थ्य है, तथापि (आत्माका) अनादिसे अन्य-वस्तुभूत मोहके साथ संयुक्तपना होनेसे, आत्माके उपयोगका, मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरतिके भेदसे तीन प्रकारका परिणामविकार है। उपयोगका वह परिणाम विकार, स्फटिककी स्वच्छताके परिणामविकारकी भाँति, परके कारण (-परकी उपाधिसे ) उत्पन्न होता दिखाई देता है। इसी बात को स्पष्ट करते हैं:- जैसे स्फटिक की स्वच्छताकी स्वरूप-परिणमनमें (अपने उज्ज्वलतारूप स्वरूपमें परिणमन करने में) समर्थ्य होनेपर
भी.
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