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समयसार
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काविह जीवाजीवाविति चेत
पोग्गलकम्मं मिच्छं जोगो अविरदि अणाणमज्जीवं। उवओगो अण्णाणं अविरदि मिच्छं च जीवो दु।। ८८ ।।
पुद्गलकर्म मिथ्यात्वं योगोऽविरतिरज्ञानमजीवः।
उपयोगोऽज्ञानमविरतिर्मिथ्यात्वं च जीवस्तु।। ८८ ।। यः खलु मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादिरजीवस्तदमूर्ताचैतन्य
भावार्थ:-पुद्गलके परमाणु पौद्गलिक मिथ्यात्वादि कर्मरूपसे परिणमित होते हैं। उस कर्मका विपाक (उदय) होनेपर उसमें जो मिथ्यात्वादि स्वाद उत्पन्न होता है वह मिथ्यात्वादि अजीव है; और कर्मके निमित्तसे जीव विभावरूप परिणमित होता है वे विभाव परिणाम चेतनके विकार हैं इसलिये वे जीव हैं।
यहाँ अब समझना चाहिये कि:-मिथ्यात्वादि कर्मकी प्रकृतियाँ पुद्गलद्रव्यके परमाणु हैं। जीव उपयोगस्वरूप है। उसके उपयोगकी ऐसी स्वच्छता है कि पौद्गलिक कर्मका उदय होनेपर उसके उदयका जो स्वाद आवे उसके आकार उपयोग हो जाता है। अज्ञानीको अज्ञानके कारण उस स्वादका और उपयोगका भेदज्ञान नहीं है इसलिये वह स्वादको ही अपना भाव समझता है। जब उनका भेदज्ञान होता है अर्थात् जीवभावको जीव जानता है और अजीवभावको अजीव जानता है तब मिथ्यात्वका अभाव होकर सम्यग्ज्ञान होता है।
अब प्रश्न करता है कि मिथ्यात्वादिको जीव और अजीव कहा है सो वे जीव मिथ्यात्वादि और अजीव मिथ्यात्वादि कौन है ? उसका उत्तर कहते हैं:
मिथ्यात्व अरु अज्ञान आदि अजीव , पुदगलकर्म हैं। अज्ञान अरु अविरमण अरु मिथ्यात्व जीव, उपयोग है ।। ८८।।
गाथार्थ:- [ मिथ्यात्वं ] जो मिथ्यात्व , [ योगः] योग, [ अविरतिः ] अविरति और [ अज्ञानम् ] अज्ञान [अजीवः ] अजीव है सो तो [ पुद्गलकर्म] पुद्गलकर्म है; [च ] और जो [अज्ञानम् ] अज्ञान, [अविरतिः ] अविरति और [ मिथ्यात्वं ] मिथ्यात्व [ जीवः ] जीव है [ तु] वह [ उपयोगः ] उपयोग है।
टीका:-निश्चयसे जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि अजीव हैं वे तो, अमूर्तिक चैतन्य
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