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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार २९६ सन्ति तावज्जीवस्य आत्मकमैकत्वाध्यासमूलानि मिथ्यात्वाज्ञानाविरतियोगलक्षणानि अध्यवसानानि। तानि रागद्वेषमोहलक्षणस्यास्रवभावस्य हेतवः। आस्रवभावः कर्महेतुः। कर्म नोकर्महेतुः। नोकर्म संसारहेतुः इति। ततो नित्यमेवायमात्मा आत्मकर्मणोरेकत्वाध्यासेन मिथ्यात्वाज्ञानाविरतियोगमयमात्मानमध्यवस्यति। ततो रागद्वेषमोहरूपमाञवभावं भावयति। ततः कर्म आस्रवति। ततो नोकर्म भवति। ततः संसार: प्रभवति। यदा तु आत्मकर्मणो दविज्ञानेन शुद्धचैतन्यचमत्कारमात्रमात्मानं उपलभते तदा मिथ्यात्वाज्ञानाविरतियोगलक्षणानां अध्यवसानानां आस्रवभावहेतूनां भवत्यभावः। तदभावे रागद्वेषमोहरूपास्रवभावस्य भवत्यभावः। तदभावे भवति कर्माभावः। तदभावेऽपि भवति नोकर्माभावः। तदभावेऽपि भवति संसाराभावः। इत्येष संवरक्रमः। टीका:-पहले तो जीवके, आत्मा और कर्मके एकत्वका अध्यास (अभिप्राय) जिनका मूल है ऐसे मिथ्यात्व-अज्ञान-अविरति-योगस्वरूप अध्यवसान विद्यमान है, वे रागद्वेषमोहस्वरूप आस्रवभावके कारण हैं; आस्रवभाव कर्मका कारण है; कर्म नोकर्मका कारण है; और नोकर्म संसारका कारण है। इसलिये-सदा यह आत्मा, आत्मा और कर्मके एकत्वके अध्याससे मिथ्यात्व-अज्ञान-अविरति-योगमय आत्माको मानता है ( अर्थात् मिथ्यात्वादि अध्यवसान करता है); इसलिये रागद्वेषमोहरूप आस्रवभावको भाता है, उससे कर्म आस्रव होता है; उससे नोकर्म होता है; और उससे संसार उत्पन्न होत है। किन्तु जब ( वह आत्मा), आत्मा और कर्मके भेदविज्ञान के द्वारा शुद्ध चैतन्यचमत्कारमात्र आत्माको उपलब्ध करता है-अनुभव करता है तब मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योगस्वरूप अध्यवसान जो कि आस्रवभावके कारण है उनका अभाव होता है; अध्यवसानोंका अभाव होनेपर रागद्वेषमोहरूप आस्रवभावका अभाव होता है; आस्रवभावका अभाव होनेपर कर्मका अभाव होता है; कर्मका अभाव होनेपर नोकर्मका अभाव होता है; और नोकर्मका अभाव होनेपर संसारका अभाव होता है। इसप्रकार यह संवरका क्रम है। भावार्थ:-जीवके जबतक आत्मा और कर्मके एकत्वका आशय है-भेदविज्ञान नहीं है तबतक मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योगस्वरूप अध्यवसान वर्तते हैं, अध्यवसानसे रागद्वेषमोहरूप आस्रवभाव होता है, आस्रवभावसे कर्म बँधता है, कर्मसे शरीरादि नोकर्म उत्पन्न होता है और नोकर्मसे संसार है। परंतु जब उसे आत्मा और कर्मका भेदविज्ञान होता है तब शुद्ध आत्माकी उपलब्धि होनेसे मिथ्यात्वादि अध्यवसानोंका अभाव होता है, और उससे रागद्वेषमोहरूप आस्रवका अभाव होता है, आस्रवके अभावसे कर्म नहीं बँधाता, कर्मके अभावसे शरीरादि नोकर्म उत्पन्न नहीं होते और नोकर्मके अभावसे संसारका अभाव होता है। इसप्रकार संवरका क्रम जानना चाहिये। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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