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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ५०६ __ (शार्दूलविक्रीडित) शुद्धद्रव्यनिरूपणार्पितमतेस्तत्त्वं समुत्पश्यतो नैकद्रव्यगतं चकास्ति किमपि द्रव्यातरं जातुचित्। ज्ञानं ज्ञेयमवैति यत्तु तदयं शुद्धस्वभावोदयः किं द्रव्यान्तरचुम्बनाकुलधियस्तत्त्वाच्च्यवन्ते जनाः।। २१५ ।। (मन्दाक्रान्ता) शुद्धद्रव्यस्वरसभवनात्कि स्वभावस्य शेषमन्यद्रव्यं भवति यदि वा तस्य किं स्यात्स्वभावः। ज्योत्स्नारूपं स्नपयति भुवं नैव तस्यास्ति भूमिनिं ज्ञेयं कलयति सदा ज्ञेयमस्यास्ति नैव।। २१६ ।। श्लोकार्थ:- [शुद्ध-द्रव्य-निरूपण-अर्पित-मतेः तत्त्वं समुत्पश्यतः ] जिसने शुद्ध द्रव्यके निरूपणमें बुद्धिको लगाया है और जो तत्त्वका अनुभव करता है, उस पुरुषको [ एकद्रव्य-गतं किम्-अपि द्रव्य-अन्तरं जातुचित् न चकास्ति] एक द्रव्यके भीतर कोई भी अन्य द्रव्य रहता हुआ कदापि भासित नहीं होता। [यत् तु ज्ञानं ज्ञेयम् अवैति तत् अयं शुद्ध-स्वभाव-उदयः ] ज्ञान ज्ञेयको जानता है वह तो यह ज्ञानके शुद्ध स्वभावका उदय है। [ जनाः] जब कि ऐसा है तब फिर लोग [ द्रव्य–अन्तरचुम्बन-आकुल-घियः] ज्ञानको अन्य द्रव्यके साथ स्पर्श होनेकी मान्यतासे आकुल बुद्धिवाले होते हुए [ तत्त्वात् ] तत्त्वसे ( शुद्ध स्वरूपसे ) [ किं च्यवन्ते ] क्यों च्युत होते हैं? भावार्थ:-शुद्धनयकी दृष्टिसे तत्त्वका स्वरूप विचार करने पर अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्यमें प्रवेश दिखाई नहीं देता। ज्ञानमें अन्य द्रव्य प्रतिभासित होते हैं सो तो यह ज्ञानकी स्वच्छताका स्वभाव है; कहीं ज्ञान उन्हें स्पर्श नहीं करता अथवा वे ज्ञानको स्पर्श नहीं करते। ऐसा होने पर भी, ज्ञानमें अन्य द्रव्योंका प्रतिभास देखकर यह लोग ऐसा मानते हुए ज्ञानस्वरूपसे च्युत होते हैं कि 'ज्ञानको परज्ञेयोंके साथे परमार्थ संबंध है' , यह उनका अज्ञान है। उनपर करुणा करके आचार्यदेव कहते हैं कि-यह लोग तत्त्वसे क्यों च्युत हो रहे हैं ? २१५। पुनः इसी अर्थको दृढ़ करते हुए कहते हैं : श्लोकार्थ:- [शुद्ध-द्रव्य-स्वरस-भवनात् ] शुद्ध द्रव्यका (आत्मा आदि द्रव्यका) निजरसरूप (-ज्ञानादि स्वभावमें) परिणमन होता है इसलिये, [शेषम् अन्यत्-द्रव्यं किं स्वभावस्य भवति ] क्या शेष कोई अन्यद्रव्य उस (ज्ञानादि) स्वभावका हो सकता है ? (नहीं।) [ यदि वा स्वभावः किं तस्य स्यात् ] अथवा क्या वह (ज्ञानादि स्वभाव) किसी अन्यद्रव्यका हो सकता है ? (नहीं । परमार्थसे एक द्रव्यका अन्य द्रव्यके साथ संबंध नहीं है।) Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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