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मोक्ष अधिकार
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कस्तर्हि मोक्षहेतुरिति चेत्जह बंधे छेत्तूण य बंधणबद्धो दु पावदि विमोक्खं। तह बंधे छेत्तूण य जीवो संपावदि विमोक्खं ।। २९२ ।।
यथा बन्धांरिछत्वा च बन्धनबद्धस्तु प्राप्नोति विमोक्षम्। तथा बन्धांरिछत्वा च जीवः सम्प्राप्नोति विमोक्षम्।। २९२ ।।
कर्मबद्धस्य बन्धच्छेदो मोक्षहेतुः, हेतुत्वात्, निगडादिबद्धस्य बन्धच्छेदवत्। एतेन उभयेऽपि पूर्वे आत्मबन्धयोxिधाकरणे व्यापार्येते।
किमयमेव मोक्षहेतुरिति चेत्
बंधाणं च सहावं वियाणिदुं अप्पणो सहावं च। बंधेसु जो विरज्जदि सो कम्मविमोक्खणं कुणदि।। २९३ ।।
जो बंधनोंसे बद्ध वो नर बंधछेदन से छुट ।
त्यों जीव भी इन बंधनोंका छेद कर मुक्ति वरे ।। २९२।। गाथार्थ:- [ यथा च ] जैसे [बन्धनबद्धः तु] बंधनबद्ध पुरुष [ बन्धान् छित्वा ] बंधनों को छेदकर [ विमोक्षम् प्राप्नोति] मुक्तिको प्राप्त हो जाता है, [ तथा च] इसीप्रकार [ जीवः] जीव [ बन्धान् छित्वा ] बंधोंको छेदकर [ विमोक्षम् सम्प्राप्नोति] मोक्षको प्राप्त करता है।
टीका:-कर्मसे बँधे हुए (पुरुष) को बंधका छेद मोक्षका कारण है, क्योंकि जैसे बेड़ी आदिसे बद्धको बंधका छेद बंधसे छूटनेका कारण है उसीप्रकार कर्मसे बँधे हुए को कर्मबंधका छेद कर्मबंधसे छूटनेका कारण है। इस ( कथन) से, पूर्वकथित दोनोंको (जो बंधके स्वरूपके ज्ञानमात्रसे संतुष्ट हैं तथा जो बंधका विचार किया करते हैं उनको-) आत्मा और बंधके द्विधाकरणमें व्यापार कराया जाता है (अर्थात् आत्मा और बंधको भिन्न भिन्न करनेके प्रति लगाया जाता है-उद्यम कराया जाता है)।
___ 'मात्र यही (बंधच्छेद ही) मोक्षका कारण क्यों है ?' ऐसा प्रश्न होनेपर अब उसका उत्तर देते हैं:
रे जानकर बंधन स्वभाव, स्वभाव जान जु आत्मका । जो बंधमें हि विरक्त होवें, कर्म मोक्ष करें अहा ।। २९३।।
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