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समयसार
१८२
स आत्मा तदा तन्मयत्वेन तस्य भावस्य व्यापकत्वाद्भवति कर्ता, स भावोऽपि च तदा तन्मयत्वेन तस्यात्मनो व्याप्यत्वाद्भवति कर्म; स एव चात्मा तदा तन्मयत्वेन तस्य भावस्य भावकत्वाद्भवत्यनुभविता, स भावोऽपि च तदा तन्मयत्वेन तस्यात्मनो भाव्यत्वाद्भवत्यनुभाव्यः। एवमज्ञानी चापि परभावस्य न कर्ता स्यात्।
न च परभावः केनापि कर्तुं पार्येतजो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि दु ण संकमदि दव्वे। सो अण्णमसंकंतो कह तं परिणामए दव्वं ।। १०३ ।।
यो यस्मिन् गुणे द्रव्ये सोऽन्यस्मिस्तु न संक्रामति द्रव्ये। सोऽन्यदसंक्रान्तः कथं तत्परिणामयति द्रव्यम्।। १०३ ।।
वह आत्मा उस समय तन्मयता से उस भावका व्यापक होनेसे उसका कर्ता होता है और वह भाव भी उस समय तन्मयतासे उस आत्माका व्याप्य होनेसे उसका कर्म होता है; और वही आत्मा उस समय तन्मयता से उस भावका भावक होने से उसका अनुभव करनेवाला (भोक्ता) होता है और वह भाव भी उस समय तन्मयता से उस आत्माका भाव्य होनेसे अनुभाव्य (भोग्य ) होता है। इसप्रकार अज्ञानी भी परभावका कर्ता नहीं है।
भावार्थ:-पुद्गलकर्मका उदय होनेपर, ज्ञानी ज्ञानी उसे जानता ही है अर्थात् वह ज्ञानका ही कर्ता होता है और अज्ञानी अज्ञानके कारण कर्मोदयके निमित्त से होनेवाले अपने अज्ञानरूप शुभाशुभ भावोंका कर्ता होता है। इसप्रकार ज्ञानी अपने ज्ञानरूप भावका कर्ता है और अज्ञानी अपने अज्ञानरूप भावका कर्ता है; परभावका कर्ता तो ज्ञानी अथवा अज्ञानी कोई नहीं है।
अब यह कहते हैं कि परभावको कोई (द्रव्य ) नहीं कर सकता :
जो द्रव्य जो गुण-द्रव्यमें, परद्रव्य रूप न संक्रमे । अनसंक्रमा किस भाँति वह परद्रव्य प्रमाणे परिणमे ।। १०३।।
गाथार्थ:- [ यः] जो वस्तु ( अर्थात् द्रव्य) [ यस्मिन् द्रव्ये ] जिसे द्रव्यमें और [गुणे ] गुणमें वर्तती है [ सः] वह [अन्यस्मिन् तु] अन्य [ द्रव्ये ] द्रव्यमें तथा गुणमें [न सक्रामति ] संक्रमणको प्राप्त नहीं होता (बदलकर अन्यमें नहीं मिल जाती); [अन्यत् असंक्रान्तः ] अन्यरूपसे संक्रमणको प्राप्त न होती हुई [ सः ] वह ( वस्तु), [ तत् द्रव्यम् ] अन्य वस्तुको [ कथं] कैसे [ परिणामयति ] परिणमन करा सकती है।
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