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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार ५२९ ज्ञानादन्यत्रेदमहमिति चेतनम् अज्ञानचेतना। सा द्विधा-कर्मचेतना कर्मफलचेतना च। तत्र ज्ञानादन्यत्रेदमहं करोमीति चेतनं कर्मचेतना; ज्ञानादन्यत्रेदं वेदयेऽहमिति चेतनं कर्मफलचेतना। सा तु समस्तापि संसारबीजं; संसारबीजस्याष्टविधकर्मणो बीजत्वात्। ततो मोक्षार्थिना पुरुषेणाज्ञानचेतनाप्रलयाय सकलकर्मसंन्यासभावनां सकलकर्मफलसंन्यासभावनां च नाटयित्वा स्वभावभूता भगवती ज्ञानचेतनैवैका नित्यमेव नाटयितव्या। तत्र तावत्सकलकर्मसंन्यासभावनां नाटयति (आर्या) कृतकारितानुमननैस्त्रिकालविषयं मनोवचनकायैः। परिहृत्य कर्म सर्व परमं नैष्कर्म्यमवलम्बे।। २२५ ।। टीका:-ज्ञानसे अन्यमें (-ज्ञान सिवा अन्य भावोंमें) ऐसा चेतना ( अनुभव करना) कि 'यह मैं हूँ', सो अज्ञानचेतना है। वह दो प्रकार की है-कर्मचेतना और कर्मफलचेतना। उसमें , ज्ञानसे अन्यमें ( अर्थात् ज्ञानके सिवा अन्य भावोमें) ऐसा चेतना कि 'इसको मैं करता हूँ', वह कर्मचेतना है; और ज्ञानसे अन्यमें ऐसा चेतना कि 'इसे मैं भोगता हूँ', वह कर्मफलचेतना है। (इसप्रकार अज्ञानचेतना दो प्रकार से है।) वह समस्त अज्ञानचेतना संसारका बीज है; क्योंकि संसारके बीज जो आठ प्रकारके (ज्ञानावरणादि) कर्म, उनका बीज वह अज्ञानचेतना है (अर्थात् उससे कर्मोंका बँध होता है)। इसलिये मोक्षार्थी पुरुषको अज्ञानचेतनाका प्रलय करनेके लिये सकल कर्मोंके संन्यास (त्याग) की भावनाको तथा सकल कर्मफलके संन्यासकी भावनाको नचाकर , स्वभावभूत ऐसी भगवती ज्ञानचेतनाको ही एकको सदा नचाना चाहिये। इसमें पहले , सकल कर्मोंके संन्यासकी भावनाको नचाते हैं:( वहाँ प्रथम , काव्य कहते हैं:-) श्लोकार्थ:- [त्रिकालविषयं] त्रिकालके (अर्थात् अतीत, वर्तमान और अनागत काल संबंधी) [ सर्व कर्म] समस्त कर्मको [ कृत-कारित–अनुमननैः ] कृतकारित-अनुमोदनासे और [ मनः-वचन-कायैः ] मन-वचन-कायासे [परिहृत्य ] त्याग करके [ परमं नैष्कर्म्यम् अवलम्बे ] मैं परम नैष्कर्म्यका (-उत्कृष्ट निष्कर्म अवस्थाका) अवलम्बन करता हूँ। (इसप्रकार, समस्त कर्मोंका त्याग करनेवाला ज्ञानी प्रतिज्ञा करता है।) । २२५। ( अब टीकामें प्रथम, प्रतिक्रमण-कल्प अर्थात् प्रतिक्रमणकी विधि कहते हैं:-) ( प्रतिक्रमण करनेवाला कहता है कि:) Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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