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[परिशिष्टम् ]
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(शार्दूलविक्रीडित) भिन्नक्षेत्रनिषण्णबोध्यनियतव्यापारनिष्ठः सदा सीदत्येव बहिः पतन्तमभितः पश्यन्पुमांसं पशुः । स्वक्षेत्रास्तितया निरुद्धरभसः स्याद्वादवेदी पुनस्तिष्ठत्यात्मनिखातबोध्यनियतव्यापारशक्तिर्भवन।। २५४ ।।
(शार्दूलविक्रीडित) स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विधपरक्षेत्रस्थितार्थोज्झनात् तुच्छीभूय पशुः प्रणश्यति चिदाकारान् सहाथैर्वमन्। स्याद्वादी तु वसन् स्वधामनि परक्षेत्रे विदन्नास्तितां त्यक्तार्थोऽपि न तुच्छतामनुभवत्याकारकर्षी परान्।। २५५ ।।
( अब सातवें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं:-)
श्लोकार्थ:- [ पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [भिन्न क्षेत्रनिषण्ण-बोध्य-नियत-व्यापार-निष्ठ: ] भिन्न क्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेयपदार्थों में जो ज्ञेयज्ञायक संबंधरूप निश्चित व्यापार है उसमें प्रवर्तता हुआ, [पुमांसम् अभितः बहि: पतन्तम् पश्यन् ] आत्माको सम्पूर्णतया बाहर ( परक्षेत्रमें) पड़ता देखकर ( -स्वक्षेत्रसे आत्माका अस्तित्व न मानकर) [ सदा सीदति एव] सदा नाशको प्राप्त होता है; [ स्याद्वादवेदी पुनः ] और स्याद्वादके जाननेवाले तो, [ स्वक्षेत्र-अस्तितया निरुद्ध-रभसः ] स्वक्षेत्रसे अस्तित्वके कारण जिसका वेग रुका हुआ है ऐसा होता हुआ (अर्थात् स्वक्षेत्रमें वर्तता हुआ), [ आत्म-निखात-बोध्य-नियत-व्यापार-शक्तिः भवन् ] आत्मामें ही आकाररूप हुए ज्ञेयोंमें निश्चित व्यापारकी शक्तिवाला होकर, [ तिष्ठति ] टिकता है-जीता है (नाश को प्राप्त नहीं होता)।
भावार्थ:-एकांतवादी भिन्न क्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेय पदार्थों को जाननेके कार्यमें प्रवृत्त होने पर आत्माको बाहर पड़ता ही मानकर, (स्वक्षेत्रसे अस्तित्व न मानकर,) अपनेको नष्ट करता है; और स्याद्वादी तो, 'परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेयोंको जानता हुए अपने क्षेत्रमें रहा हुआ आत्मा स्वक्षेत्रसे अस्तित्व धारण करता है' ऐसा मानता हुआ टिकता है-नाशको प्राप्त नहीं होता।
इसप्रकार स्वक्षेत्रसे अस्तित्वका भंग कहा है। २५४ । (अब आठवें भंगका कलशरूपे काव्य कहते है:-)
श्लोकार्थ:- [ पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [ स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विध-परक्षेत्र-स्थित-अर्थ-उज्झनात् ] स्वक्षेत्रमें रहनेके लिये भिन्न भिन्न परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेय पदार्थोंको छोड़नेसे, [ अथै: सह चिद्-आकारान् वमन् ] ज्ञेय पदार्थों के साथ चैतन्यके आकारोंको भी वमन करता हुआ (अर्थात् ज्ञेय
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