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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्ष अधिकार ४२३ आत्मबन्धयोधिाकरणे कार्ये कर्तुरात्मनः करणमीमांसायां, निश्चयतः स्वतो भिन्नकरणासम्भवात्, भगवती प्रज्ञैव छेदनात्मकं करणम्। तया हि तौ छिन्नौ नानात्वमवश्यमेवापद्येते; ततः प्रज्ञयैवात्मबन्धयोद्धिधाकरणम्। ननु कथमात्मबन्धौ चेत्यचेतकभावेनात्यन्तप्रत्यासत्तेरेकीभूतौ भेदविज्ञानाभावादेकचेतकवट्यवह्रियमाणौ प्रज्ञया छेत्तुं शक्येते ? नियतस्वलक्षणसूक्ष्मान्तःसन्धिसावधाननिपातनादिति बुध्येमहि। आत्मनो हि समस्तशेषद्रव्यासाधारणत्वाच्चैतन्यं स्वलक्षणम्। तत्तु प्रवर्तमानं यद्यदभिव्याप्य प्रवर्तते निवर्तमानं च यद्यदुपादाय निवर्तते तत्तत्समस्तमपि सहप्रवृत्तं क्रमप्रवृत्तं वा पर्यायजातमात्मेति लक्षणीयः, तदेकलक्षणलक्ष्यत्वात; टीका:-आत्मा और बंधके द्विधा करनेरूप कार्यमें कर्ता जो आत्मा उसके 'करण संबंधी मीमांसा करनेपर, निश्चयल: (निश्चयनयसे) अपनेसे भिन्न करणका अभाव होनेसे भगवती प्रज्ञा ही (-ज्ञानस्वरूप बुद्धि ही) छेदनात्मक (-छेदनेके स्वभाववाला) करण है। उस प्रज्ञाके द्वारा उनका छेद करनेपर वे अवश्य ही नानत्वको प्राप्त होते हैं; इसलिये उस प्रज्ञा द्वारा ही आत्मा और बंधका द्विधा किया जाता है ( अर्थात् प्रज्ञारूपी करण द्वारा ही आत्मा और बंध जुदे किये जाते हैं)। (यहाँ प्रश्न होता है कि-) आत्मा और बंध जो कि *चेत्यचेतकभावके द्वारा अत्यंत निकटताके कारण (-एक जैसे-) ही रहे हैं, और भेदविज्ञानके अभावके कारण, मानो वे एक चेतक ही हों ऐसा जिनका व्यवहार किया जाता है, (अर्थात् जिन्हें एक आत्माके रूपमें ही व्यवहारमें माना जाता है) उन्हें प्रज्ञाके द्वारा वास्तवमें कैसे छेदा जा सकता है ? (इसका समाधान करते हुए आचार्यदेव कहते हैं:-) आत्मा और बंधके नियत स्वलक्षणोंकी सूक्ष्म अंतःसंधिमें (अंतरंगकी संधिमें) प्रज्ञाछैनीको सावधान होकर पटकनेसे (-डालनेसे, मारनेसे ) उनको छेदा जा सकता है -अर्थात् उन्हें अलग किया जा सकता है; ऐसा हम जानते हैं। आत्माका स्वलक्षण चैतन्य है, क्योंकि वह समस्त शेष द्रव्योंसे असाधारण है (वह अन्य द्रव्योंमें नहीं है)। वह (चैतन्य) प्रवर्तमान होता हुआ जिस जिस पर्यायको व्याप्त होकर प्रवर्तता है और निवर्तमान होता हुआ जिस जिस पर्यायको ग्रहण करके निवर्तता है वे समस्त सहवर्ती या क्रमवर्ती पर्यायें आत्मा हैं इसप्रकार लक्षित करना (लक्षणसे पहचानना) चाहिये (अर्थात जिन जिन गुणपर्यायोंमें चैतन्यलक्षण व्याप्त होता है वे सब गुणपर्यायें आत्मा हैं, ऐसा जानना चाहिये) क्योंकि आत्मा उसी एक लक्षणसे लक्ष्य है ( अर्थात् चैतन्यलक्षणसे ही पहिचाना जाता है)। * आत्मा चेतक है और बंध चेत्य है; वे दोनों अज्ञान दशामें एकसे अनुभवमें आते हैं। १। करण = साधन; करण नामका कारक। २। मीमांसा = गहरी विचारणा; तपास, समालोचना। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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