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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार २७२ संता दु णिरुवभोज्जा बाला इत्थी जहेह पुरिसस्स। बंधदि ते उवभोज्जे तरुणी इत्थी जह णरस्स।।१७५ ।। एदेण कारणेण दु सम्मादिट्ठी अबंधगो भणिद्रो। आसवभावाभावे ण पच्चया बंधगा भणिदा।।१७६ ।। सर्वे पूर्वनिबद्धास्तु प्रत्ययाः सन्ति सम्यग्दृष्टेः। उपयोगप्रायोग्यं बध्नन्ति कर्मभावेन।। १७३ ।। भूत्वा निरुपभोग्यानि तथा बध्नाति यथा भवन्त्युपभोग्यानि। सप्ताष्टविधानि भूतानि ज्ञानावरणादिभावैः।। १७४ ।। सन्ति तु निरुपभोग्यानि बाला स्त्री यथेह पुरुषस्य। बध्नाति तानि उपभोग्यानि तरुणी स्त्री यथा नरस्य।। १७५ ।। एतेन कारणेन तु सम्यग्दृष्टिरबन्धको भणितः। आस्रवभावाभावे न प्रत्यया बन्धका भणिताः।। १७६ ।। सत्ता विर्षे वे निरुपभोग्य हि, बालिका ज्यों पुरुषको । उपभोग्य बनते वे हि बांधे , यौवना ज्यों पुरुषको ।। १७५।। इस हेतुसे सम्यक्त्वसंयुत, जीव अनबंधक कहे । आसरवभावअभावमें प्रत्यय नहीं बंधक कहे ।। १७६ ।। गाथार्थ:- [ सम्यग्दृष्टे:] सम्यग्दृष्टिके [ सर्वे ] समस्त [ पूर्वनिबद्धाः तु] पूर्वबद्ध [प्रत्ययाः] प्रत्यय (द्रव्यास्रव) [ सन्ति ] सत्तारूपमें विद्यमान हैं वे [ उपयोगप्रायोग्यं] उपयोगके प्रयोगानुसार, [ कर्मभावेन ] कर्मभावके द्वारा (-रागादिके द्वारा) [ बध्नन्ति ] नवीन बंध करते हैं। वे प्रत्यय, [निरुपभोग्यानि] निरुपभोग्य [ भूत्वा] होकर फिर [ यथा] जैसे [उपभोग्यानि] उपभोग्य [ भवन्ति ] होते हैं [ तथा] उसीप्रकार, [ ज्ञानावरणादिभावैः] ज्ञानावरणादि भावसे [ सप्ताष्टविधानि भूतानि] सात-आठ प्रकारसे होनेवाले कर्मोंको [ बध्नाति] बाँधते हैं। [ सन्ति तु] सत्ता-अवस्थामें वे [निरुपभोग्यानि] निरुपभोग्य हैं अर्थात् भोगनेयोग्य नहीं हैं-[ यथा] जैसे [इह] जगतमें [बाला स्त्री] बाल स्त्री [पुरुषस्य ] पुरुषके लिये निरुपभोग्य है। [यथा] जैसे [ तरुणी स्त्री ] तरुण स्त्री युवती [ नरस्य ] पुरुषको बाँध लेती है, उसीप्रकार [ तानि] वे [ उपभोग्यानि] उपभोग्य अर्थात् भोगने योग्य होनेपर बंधन करते हैं। [ एतेन तु कारणेन] इस कारणसे [ सम्यदृष्टि:] सम्यग्दृष्टिको [अबन्धकः] अबंधक [ भणतिः] कहा है, क्योंकि [आस्रवभावाभावे] आस्रवभावके अभावमें [प्रत्ययाः ] प्रत्ययोंको [ बन्धकाः ] ( कर्मोंका ) बंधक [ न भणिताः] नहीं कहा है। Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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